भारत के सुप्रीम कोर्ट ने कमिश्नर ऑफ सर्विस टैक्स बनाम मेसर्स एलिगेंट डेवलपर्स मामले में राजस्व विभाग की अपील को खारिज कर दिया है। कोर्ट ने माना कि एक डेवलपर, जो “निश्चित औसत दर” (fixed average rate) पर भूमि अधिग्रहण की सुविधा देता है और इसमें होने वाले लाभ या हानि का जोखिम खुद उठाता है, उसे फाइनेंस एक्ट, 1994 के तहत ‘रियल एस्टेट एजेंट’ नहीं माना जा सकता और वह सर्विस टैक्स के लिए उत्तरदायी नहीं है।
जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने कस्टम्स, एक्साइज एंड सर्विस टैक्स अपीलेट ट्रिब्यूनल (CESTAT) के निष्कर्षों की पुष्टि की। कोर्ट ने फैसला सुनाया कि विचाराधीन लेनदेन “भूमि की बिक्री के सादे और सरल लेनदेन” थे, न कि किसी कर योग्य सेवा का प्रावधान। कोर्ट ने यह भी माना कि राजस्व विभाग द्वारा विस्तारित अवधि (extended period of limitation) लागू करना अनुचित था, क्योंकि डेवलपर द्वारा “जानबूझकर या इरादतन तथ्यों को छिपाया नहीं गया” था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद मेसर्स एलिगेंट डेवलपर्स (प्रतिवादी) और मेसर्स सहारा इंडिया कमर्शियल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (SICCL) के बीच ‘सहारा सिटी होम्स’ परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण हेतु 2002, 2004 और 2005 में हुए तीन समझौता ज्ञापनों (MOUs) से उत्पन्न हुआ था।
MOUs के तहत, SICCL ने प्रतिवादी को प्रति एकड़ एक ‘निश्चित औसत दर’ का भुगतान करने पर सहमति व्यक्त की। प्रतिवादी की जिम्मेदारियों में सन्निहित ब्लॉकों में भूमि की पहचान करना और खरीदना, टाइटल पेपर प्रस्तुत करना, आवश्यक अनुमतियां प्राप्त करना और पंजीकरण के लिए भूस्वामियों को लाना शामिल था। प्रतिवादी SICCL द्वारा दिए गए अग्रिम (advance) से भूस्वामियों को भुगतान करता था।
निर्णय में एक महत्वपूर्ण शर्त का उल्लेख किया गया कि, “भूस्वामियों को भुगतान की गई राशि और निश्चित औसत दर के बीच कोई भी कमी या अधिशेष (shortfall or surplus) प्रतिवादी के लाभ-हानि मार्जिन के रूप में अर्जित होगा।”
डायरेक्टरेट जनरल ऑफ सेंट्रल एक्साइज इंटेलिजेंस ने जांच शुरू करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि प्रतिवादी सर्विस टैक्स का भुगतान किए बिना SICCL को ‘रियल एस्टेट एजेंट’ की सेवाएं प्रदान कर रहा था। 22 अप्रैल, 2010 को, “तथ्यों को जानबूझकर छिपाने” का आरोप लगाते हुए, फाइनेंस एक्ट, 1994 की धारा 73(1) के तहत विस्तारित अवधि लागू करते हुए 10.28 करोड़ रुपये (1 अक्टूबर, 2004 से 31 मार्च, 2007 की अवधि के लिए) की मांग का कारण बताओ नोटिस जारी किया गया।
सर्विस टैक्स कमिश्नर ने ब्याज और दंड के साथ 10.45 करोड़ रुपये की मांग की पुष्टि की। हालांकि, अपीलीय ट्रिब्यूनल (CESTAT) ने प्रतिवादी की अपील को यह मानते हुए स्वीकार कर लिया कि पार्टियों ने “प्रिंसिपल और एजेंट” के बजाय “प्रिंसिपल” के रूप में काम किया और टैक्स चोरी का कोई mala fide इरादा नहीं था। कमिश्नर ने बाद में CESTAT के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता (सर्विस टैक्स कमिश्नर) ने तर्क दिया कि प्रतिवादी ने “केवल एक सूत्रधार (facilitator) के रूप में काम किया,” कभी भी भूमि का स्वामित्व प्राप्त नहीं किया और केवल पावर ऑफ अटॉर्नी के माध्यम से उन्हें SICCL को हस्तांतरित किया। अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि लाभ मार्जिन सेवाओं के लिए एक “कमीशन” था, जो प्रतिवादी को फाइनेंस एक्ट, 1994 की धारा 65(88) के तहत ‘रियल एस्टेट एजेंट’ की परिभाषा में लाता है।
प्रतिवादी (मेसर्स एलिगेंट डेवलपर्स) ने तर्क दिया कि उसकी गतिविधियों में ‘सेवा’ शामिल नहीं थी, क्योंकि उसने “भूमि लेनदेन में लाभ और हानि का जोखिम और इनाम ग्रहण किया” और एक “मध्यवर्ती व्यापारी” के रूप में काम किया। यह भी दलील दी गई कि यह मांग समय-बाधित (time-barred) थी, क्योंकि राजस्व विभाग विस्तारित अवधि लागू करने के लिए “दमन के किसी भी सकारात्मक कार्य” (positive act of suppression) को प्रदर्शित करने में विफल रहा।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने दो मुख्य मुद्दों का विश्लेषण किया: क्या प्रतिवादी ‘रियल एस्टेट एजेंट’ के रूप में अर्हता प्राप्त करता है और क्या विस्तारित अवधि को सही ढंग से लागू किया गया था।
1. ‘रियल एस्टेट एजेंट’ की स्थिति पर
कोर्ट ने ‘रियल एस्टेट एजेंट’ (धारा 65(88)) और ‘रियल एस्टेट कंसल्टेंट’ (धारा 65(89)) की परिभाषाओं की जांच करते हुए पाया कि “दोनों परिभाषाएं सेवाएं प्रदान करने पर केंद्रित हैं।”
जस्टिस संदीप मेहता द्वारा लिखे गए फैसले में, कोर्ट ने माना कि इस श्रेणी के तहत एक कर योग्य सेवा के लिए “एजेंसी का अनुबंध” (contract of agency) होना आवश्यक है, जहां सेवाओं के लिए प्रतिफल (consideration) का भुगतान किया जाता है। MOUs का विश्लेषण करते हुए, कोर्ट ने ऐसा कोई संबंध नहीं पाया।
कोर्ट ने कहा: “मौजूदा मामले में, यह स्वीकार्य है कि प्रतिवादी को SICCL द्वारा ऐसी किसी भी सेवा के लिए नहीं लगाया गया था। एमओयू की शर्तें… यह संकेत नहीं देती हैं कि SICCL और प्रतिवादी के बीच प्रिंसिपल और एजेंट का कोई संबंध मौजूद था। प्रतिवादी द्वारा ऐसे बिक्री लेनदेन पर कोई सर्विस चार्ज या कंसल्टेंसी चार्ज नहीं लगाया जा रहा था।”
पीठ ने प्रतिवादी की कमाई को कमीशन से स्पष्ट रूप से अलग करते हुए कहा: “प्रतिवादी को होने वाला लाभ… निश्चित बिक्री मूल्य से अधिक और ऊपर बिक्री प्रतिफल के अंतर से उत्पन्न होगा… यह उल्लेखनीय है कि यदि भूमि का मूल्य एमओयू में सहमत निश्चित मूल्य से अधिक हो जाता है, तो प्रतिवादी को लेनदेन में नुकसान होने की भी संभावना थी। यह संभव नहीं होता यदि अनुबंध कमीशन या किसी अन्य रूप में सेवाएं प्रदान करने के लिए होता।”
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि गतिविधियां “भूमि की बिक्री के सादे और सरल लेनदेन” थीं, जिन्हें एक्ट की धारा 65B(44)(a)(i) के तहत ‘सेवा’ की परिभाषा से बाहर रखा गया है।
2. विस्तारित अवधि पर
धारा 73(1) के प्रावधान के तहत विस्तारित अवधि लागू करने के संबंध में, कोर्ट ने माना कि अपीलकर्ता को “जानबूझकर दमन और छिपाव” (deliberate suppression and concealment) साबित करना आवश्यक था।
स्टेमसाइट इंडिया थेराप्यूटिक्स (प्रा) लिमिटेड बनाम सीसीई एंड एसटी में अपने हालिया फैसले का हवाला देते हुए, कोर्ट ने दोहराया कि “विभाग द्वारा विस्तारित अवधि लागू करने के लिए, असेसी की ओर से टैक्स भुगतान से बचने के लिए एक सक्रिय और जानबूझकर किया गया कार्य होना चाहिए। केवल टैक्स का भुगतान न करना… पर्याप्त नहीं है।”
कोर्ट को प्रतिवादी द्वारा इस तरह के दमन का कोई सबूत नहीं मिला। निर्णय में कहा गया है, “यह स्वीकार्य है कि प्रतिवादी और SICCL के बीच सभी लेनदेन वैध बैंकिंग चैनलों के माध्यम से हुए थे और इस प्रकार प्रतिवादी द्वारा छिपाने या दमन का कोई तत्व नहीं था…”
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला: “अपीलकर्ता यह स्थापित करने के लिए कोई सबूत पेश करने में विफल रहा है कि प्रतिवादी ने भौतिक तथ्यों को जानबूझकर या इरादतन छिपाया है, और रिकॉर्ड पर ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह बताता हो कि प्रतिवादी ने अधिकारियों को गुमराह करने या सर्विस टैक्स के भुगतान से बचने के किसी भी इरादे से काम किया।”
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपीलीय ट्रिब्यूनल के आदेश को बरकरार रखते हुए कहा, “हमें यह मानने में कोई झिझक नहीं है कि आक्षेपित निर्णय (impugned judgment) में ऐसी कोई दुर्बलता नहीं है, जिसके लिए इस कोर्ट के हस्तक्षेप की आवश्यकता हो। तदनुसार, हम मानते हैं कि विचाराधीन लेनदेन न तो ‘रियल एस्टेट एजेंट’ की परिभाषा में आते हैं और न ही फाइनेंस एक्ट, 1994 के तहत ‘रियल एस्टेट कंसल्टेंट’ की परिभाषा में।”
अपीलों में कोई सार न पाते हुए, पीठ ने उन्हें खारिज कर दिया।




