डीएनए टेस्ट सामान्य रूप से आदेशित नहीं किया जा सकता; व्यक्तियों की गरिमा और निजता की रक्षा आवश्यक: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि डीएनए जांच को जांच के नियमित साधन के रूप में नहीं अपनाया जा सकता और इसे केवल उन असाधारण परिस्थितियों में ही आदेशित किया जाना चाहिए, जहाँ न्याय के हित में ऐसा करना अनिवार्य हो। अदालत ने कहा कि डीएनए परीक्षण एक व्यक्ति की निजता और शारीरिक स्वायत्तता में गंभीर हस्तक्षेप है, और इसलिए इसे संवैधानिक सुरक्षा उपायों के अधीन रहना चाहिए।

न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति विपुल पंचोली की खंडपीठ ने कहा कि डीएनए टेस्ट के आदेश में “अत्यंत सावधानी” बरती जानी चाहिए ताकि वैवाहिक संबंधों की पवित्रता और वैवाहिक जीवन में जन्मे बच्चों की वैधता को संदेह के घेरे में न लाया जाए।

खंडपीठ ने कहा, “डीएनए परीक्षण को सामान्य प्रक्रिया के रूप में आदेशित नहीं किया जा सकता और इसे सख्त सुरक्षा उपायों के तहत ही किया जाना चाहिए ताकि व्यक्तियों की गरिमा और वैवाहिक जीवन में जन्मे बच्चों की वैधता सुरक्षित रह सके। अदालतों को इस बात से सतर्क रहना होगा कि कहीं वैज्ञानिक साक्ष्य के नाम पर ‘फिशिंग इंक्वायरी’ (सिर्फ अटकलों पर आधारित जांच) न चलाई जा रही हो।”

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सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी व्यक्ति को जबरन डीएनए परीक्षण के लिए बाध्य करना उसकी निजता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर गंभीर आघात है। ऐसा कोई भी हस्तक्षेप तभी वैध हो सकता है जब वह तीन कसौटियों — वैधता (legality), वैध राज्य उद्देश्य (legitimate state aim) और आनुपातिकता (proportionality) — पर खरा उतरे।

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यह निर्णय तमिलनाडु के एक डॉक्टर की याचिका पर आया, जिसने मद्रास हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी जिसमें उसे डीएनए प्रोफाइलिंग के लिए रक्त का नमूना देने को कहा गया था।

मामला एक मुस्लिम महिला की शिकायत से जुड़ा था, जिसने आरोप लगाया कि उसके पति की चिकित्सा के दौरान डॉक्टर ने उससे शारीरिक संबंध बनाए, जिससे एक बच्चा हुआ। बाद में डॉक्टर ने उससे विवाह करने से इनकार कर दिया, जिसके बाद महिला ने एक तमिल टीवी चैनल पर अपनी आपबीती सुनाई। इसके परिणामस्वरूप डॉक्टर के खिलाफ आईपीसी की धारा 417 (धोखाधड़ी), 420 (संपत्ति की बेईमानी से प्राप्ति) और तमिलनाडु महिला उत्पीड़न अधिनियम की धारा 4 के तहत एफआईआर दर्ज की गई।

मद्रास हाईकोर्ट ने बच्चे की पितृत्व जांच के लिए डीएनए टेस्ट का आदेश दिया था।

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सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का आदेश रद्द करते हुए कहा कि यह “कानूनी प्रावधानों और संवैधानिक सुरक्षा उपायों की मूलभूत गलत व्याख्या” पर आधारित था। अदालत ने कहा कि इस मामले में लगाए गए आरोप ऐसे नहीं थे जिनमें डीएनए जांच की आवश्यकता होती।

खंडपीठ ने कहा, “आईपीसी की धारा 417 और 420 तथा तमिलनाडु महिला उत्पीड़न अधिनियम की धारा 4 के तहत लगाए गए आरोप ऐसे स्वरूप या परिस्थिति के नहीं हैं जिनमें डीएनए विश्लेषण की आवश्यकता हो। हाईकोर्ट द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 53 और 53ए का हवाला देना भी संदर्भ से बाहर था, क्योंकि ये प्रावधान केवल तभी चिकित्सा परीक्षण की अनुमति देते हैं जब उससे अपराध से सीधे जुड़ा साक्ष्य प्राप्त हो सके।”

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अदालत ने कहा कि बिना पर्याप्त आवश्यकता के डीएनए परीक्षण का आदेश देना “वैध जांच शक्ति को एक अनावश्यक और घुसपैठ वाले उपाय में बदल देता है”, जिससे व्यक्ति की शारीरिक स्वायत्तता और निजता पर आघात होता है।

अदालत ने टिप्पणी की, “वैज्ञानिक प्रक्रियाएँ, चाहे कितनी भी उन्नत क्यों न हों, अटकलों के औजार नहीं बन सकतीं। उन्हें केवल उन्हीं मामलों में प्रयोग किया जा सकता है जहाँ उनका प्रत्यक्ष संबंध आरोपों से हो और जहाँ जांच की वास्तविक आवश्यकता सिद्ध हो।”

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