केरल हाईकोर्ट ने, न्यायमूर्ति बेचु कुरियन थॉमस द्वारा दिए गए एक फैसले में, नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 (चेक अनादरण) के तहत एक आरोपी को बरी किए जाने के खिलाफ दायर आपराधिक अपील (Crl.A No. 222 of 2015) को खारिज कर दिया है। हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले की पुष्टि करते हुए यह माना कि आरोपी ने शिकायतकर्ता के अपने साक्ष्यों में मौजूद विरोधाभासों और स्वीकृतियों पर भरोसा करते हुए, ‘संभावनाओं की प्रबलता’ (preponderance of probabilities) के आधार पर धारा 139 के तहत वैधानिक धारणा का सफलतापूर्वक खंडन कर दिया था कि चेक कथित ऋण के लिए जारी नहीं किया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि:
यह अपील न्यायिक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट कोर्ट- II, चालकुडी के समक्ष S.T.No.61/2012 में पारित फैसले से उत्पन्न हुई थी। अपीलकर्ता (शिकायतकर्ता), जोस, पिता-लोनप्पन ने आरोप लगाया था कि पहले प्रतिवादी (आरोपी), जोस, पिता-डोमिनी ने 12.06.2011 को 3,00,000/- रुपये उधार लिए थे।
शिकायत के अनुसार, इस राशि के भुगतान के लिए, आरोपी ने 12.09.2011 की तारीख का 3,00,000/- रुपये का एक चेक (प्रदर्श P1) जारी किया, जो साउथ इंडियन बैंक, चालकुडी शाखा पर आहरित था। जब इसे भुगतान के लिए प्रस्तुत किया गया, तो यह “धनराशि अपर्याप्त” (funds insufficient) की टिप्पणी के साथ अनादरित हो गया।
शिकायतकर्ता ने 12.10.2011 को राशि की अदायगी की मांग करते हुए एक वैधानिक नोटिस जारी किया। आरोपी ने राशि का भुगतान करने में विफल रहने के बजाय, एक जवाबी नोटिस (प्रदर्श P7) जारी किया।
30.09.2014 को, विद्वान मजिस्ट्रेट ने आरोपी को यह पाते हुए बरी कर दिया कि शिकायतकर्ता चेक (प्रदर्श P1) के निष्पादन और जारी करने को साबित करने में विफल रहा और यह माना कि चेक प्रतिफल (consideration) द्वारा समर्थित नहीं था। शिकायतकर्ता ने बाद में इस बरी किए जाने के खिलाफ केरल हाईकोर्ट के समक्ष वर्तमान अपील दायर की।
मुकदमे के दौरान, शिकायतकर्ता ने खुद को PW1 के रूप में परीक्षित किया और प्रदर्श P1 से P7 को चिह्नित किया। बचाव पक्ष ने प्रदर्श D1 को चिह्नित किया।
आरोपी का लगातार यह पक्ष रहा, जैसा कि उसके प्रदर्श P7 जवाबी नोटिस में परिलक्षित होता है, कि उसने 3,00,000/- रुपये के ऋण से इनकार किया था। आरोपी ने विशेष रूप से यह कहा कि 15.02.2011 को, मर्चेंट्स एसोसिएशन के पदाधिकारियों के हस्तक्षेप पर, उसने 20,000/- रुपये के साथ एक हस्ताक्षरित दस्तावेज़ और एक खाली हस्ताक्षरित चेक सौंपा था। आरोपी ने तर्क दिया कि यह खाली चेक वापस नहीं किया गया और बाद में शिकायतकर्ता द्वारा इसे भुगतान के लिए प्रस्तुत करके इसका दुरुपयोग किया गया।
न्यायालय का विश्लेषण और तर्क:
न्यायमूर्ति बेचु कुरियन थॉमस की अध्यक्षता वाली हाईकोर्ट ने अपने विश्लेषण की शुरुआत यह देखते हुए की कि यह अपील एक ऐसे मामले में बरी किए जाने के खिलाफ है जहां कानून NI एक्ट की धारा 139 के तहत एक धारणा (presumption) बनाता है, जो यह मानती है कि धारक को चेक किसी ऋण या देयता के निर्वहन के लिए प्राप्त हुआ है।
न्यायालय ने कहा कि यह धारणा खंडन योग्य (rebuttable) है, और आरोपी के लिए सबूत का मानक “संभावनाओं की प्रबलता” (preponderance of probabilities) का है। फैसले में इस सिद्धांत पर सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों की समीक्षा की गई। इसमें बसलिंगप्पा बनाम मुदिबसप्पा [(2019) 5 SCC 418] का हवाला दिया गया, जिसने यह स्थापित किया कि “धारणा का खंडन करने के लिए, आरोपी अपने द्वारा पेश किए गए सबूतों पर भरोसा कर सकता है या आरोपी एक संभावित बचाव (probable defence) उठाने के लिए शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत सामग्री पर भी भरोसा कर सकता है।”
न्यायालय ने राजेश जैन बनाम अजय सिंह [(2023) 10 SCC 148] का भी उल्लेख किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक आरोपी के पास अदालत को यह विचार करने के लिए कहने का विकल्प होता है कि ऋण/देयता का अस्तित्व “इतना संभावित नहीं है कि एक प्रबुद्ध व्यक्ति को, मामले की परिस्थितियों के तहत, यह मानकर कार्य करना चाहिए कि ऋण/देयता का अस्तित्व नहीं था।”
इन सिद्धांतों को लागू करते हुए, न्यायमूर्ति थॉमस ने कहा कि आरोपी के पास दो विकल्प हैं: पहला, बचाव पक्ष के साक्ष्य पेश करके यह निर्णायक रूप से स्थापित करना कि चेक ऋण के लिए जारी नहीं किया गया था, या दूसरा, “मामले की विशेष परिस्थितियों का हवाला देते हुए, संभावनाओं की प्रबलता के आधार पर ऋण/देयता के अस्तित्वहीनता को साबित करना।”
हाईकोर्ट ने पाया कि इस मामले में आरोपी दूसरे विकल्प के माध्यम से सफल हुआ, जिसमें उसने शिकायतकर्ता की अपनी गवाही का इस्तेमाल किया। फैसले में जिरह के दौरान शिकायतकर्ता (PW1) द्वारा की गई महत्वपूर्ण स्वीकृतियों पर प्रकाश डाला गया।
न्यायालय ने कहा: “प्रदर्श D1 को पढ़ने से पता चलता है कि आरोपी द्वारा शिकायतकर्ता को देय 1,84,000/- रुपये की राशि में से, उसे 16.02.2011 को 20,000/- रुपये प्राप्त हुए थे और शेष राशि केवल 1,64,000/- रुपये थी।” शिकायतकर्ता (PW1) ने जिरह में स्वीकार किया था कि प्रदर्श D1 उनके बीच लेन-देन से संबंधित समझौते को दर्शाता है। यह सीधे तौर पर शिकायतकर्ता के 3,00,000/- रुपये के ऋण के प्राथमिक आरोप का खंडन करता था।
फैसले में शिकायतकर्ता के बयानों में अन्य व्यक्तियों और लेन-देन के संबंध में “विभिन्न विसंगतियों” (various inconsistencies) को भी नोट किया गया, जिसमें शिकायतकर्ता की पत्नी और आरोपी के बीच के लेन-देन भी शामिल थे, जो “आरोपी के इस बचाव को संभावित बनाते हैं कि चेक किसी अन्य लेन-देन के संबंध में जारी किया गया था।”
न्यायालय ने इसे महत्वपूर्ण पाया कि “शिकायतकर्ता का यह मामला कि उसने आरोपी को 3,00,000/- रुपये की राशि उस समय उधार दी थी जब आरोपी पर शिकायतकर्ता की पत्नी का 1,64,000/- रुपये बकाया था, यह भी महत्व रखता है।”
अपने विश्लेषण का समापन करते हुए, हाईकोर्ट ने माना कि शिकायतकर्ता द्वारा स्वयं पेश किए गए साक्ष्य ने बचाव पक्ष के संस्करण का समर्थन किया। पैरा 16 में, न्यायालय ने कहा: “शिकायतकर्ता द्वारा स्वयं पेश किए गए साक्ष्यों का संचयी प्रभाव बचाव पक्ष के संस्करण को अधिक संभावित बनाता है।” इसमें आगे कहा गया: “इस प्रकार, PW1 के रूप में शिकायतकर्ता का साक्ष्य ही बचाव पक्ष के संस्करण को अधिक संभावित बनाता है।”
अंतिम निर्णय:
इस विश्लेषण के आधार पर, हाईकोर्ट ने पाया कि निचली अदालत का निर्णय उचित था।
न्यायमूर्ति थॉमस ने पैरा 17 में लिखा, “इन परिस्थितियों में, इस न्यायालय को इस विश्वास पर कार्य करना होगा कि शिकायतकर्ता द्वारा कथित ऋण या देयता का अस्तित्व नहीं था।”
न्यायालय ने माना कि निचली अदालत ने सही माना कि आरोपी का संस्करण अधिक संभावित था और “निचली अदालत के निष्कर्षों में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाया।”
तदनुसार, हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि अपील में कोई दम नहीं है, और इसे खारिज कर दिया गया, जिससे आरोपी की रिहाई को बरकरार रखा गया।




