सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने समीउल्लाह बनाम बिहार राज्य व अन्य के मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए बिहार पंजीकरण नियमावली, 2008 में किए गए 2019 के एक संशोधन को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वे उप-नियम, जो पंजीकरण अधिकारियों को विक्रेता के नाम पर म्यूटेशन (जमाबंदी या होल्डिंग अलॉटमेंट) का सबूत न होने पर बिक्री या उपहार के दस्तावेजों को पंजीकृत करने से इनकार करने का अधिकार देते थे, असंवैधानिक हैं।
जस्टिस पी. एस. नरसिम्हा और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने माना कि नियम 19 के आक्षेपित उप-नियम (xvii) और (xviii) पंजीकरण अधिनियम, 1908 के तहत नियम बनाने वाली संस्था के अधिकार क्षेत्र से बाहर (अल्ट्रा वायर्स) हैं, और साथ ही “मनमाने और अवैध” भी हैं।
मामले की पृष्ठभूमि
इन अपीलों में पटना हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी गई थी, जिसने इन नियमों की वैधता को बरकरार रखा था। 10 अक्टूबर, 2019 की अधिसूचना के माध्यम से लागू किए गए इन नियमों ने यह अनिवार्य बना दिया था कि संपत्ति की बिक्री या उपहार से संबंधित किसी भी दस्तावेज को पंजीकरण के लिए तब तक मना किया जा सकता है, जब तक:
- (xvii) ग्रामीण भूमि के लिए, विक्रेता/दाता के नाम पर जमाबंदी अलॉटमेंट का उल्लेख विलेख (deed) में न हो और इसका कोई सबूत पेश न किया गया हो।
- (xviii) शहरी क्षेत्रों में फ्लैट/अपार्टमेंट के लिए, विक्रेता/दाता के नाम पर होल्डिंग अलॉटमेंट का उल्लेख विलेख में न हो और इसका कोई सबूत पेश न किया गया हो।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में यह नोट किया गया कि इन नियमों ने म्यूटेशन प्रमाणपत्र को संपत्ति के हस्तांतरण के लिए एक “पूर्व शर्त” बना दिया था।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता श्री मनन कुमार मिश्र ने तर्क दिया कि:
- ये नियम पंजीकरण अधिनियम, 1908 की धारा 69 के तहत महानिरीक्षक, पंजीकरण (Inspector General of Registration) को दी गई नियम बनाने की शक्ति से परे हैं।
- इन नियमों का पालन करना असंभव है, क्योंकि बिहार में भूमि सर्वेक्षण अभी भी अधूरे हैं और 80% जमाबंदियां अभी भी पूर्वजों के नाम पर हैं, जिनमें से 95-98% की मृत्यु हो चुकी है।
- यह एक स्थापित कानून है कि म्यूटेशन से किसी को संपत्ति का मालिकाना हक (टाइटल) नहीं मिलता या पैदा नहीं होता, इसलिए इसे पंजीकरण के लिए अनिवार्य बनाना मनमाना है।
- ये नियम अवैध रूप से पंजीकरण अधिकारियों को मालिकाना हक पर निर्णय लेने का अधिकार देते हैं, जो विशेष रूप से सिविल अदालतों का अधिकार क्षेत्र है।
वहीं, बिहार राज्य की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रंजीत कुमार ने नियमों का बचाव करते हुए तर्क दिया कि:
- संशोधन का उद्देश्य “पंजीकरण दस्तावेजों को भूमि के वास्तविक कब्जे की हकीकत के साथ सिंक्रनाइज़ करना” और बिक्री लेनदेन में अखंडता सुनिश्चित करना है।
- इन नियमों का उद्देश्य “बढ़ती आपराधिक प्रवृत्तियों” और एक ही भूमि पर कई दावों की समस्या पर अंकुश लगाना है।
- बिहार भूमि म्यूटेशन अधिनियम, 2011, म्यूटेशन प्रदान करने के लिए एक निश्चित समय-सीमा (21 दिनों के भीतर) प्रदान करता है, और भूमि रिकॉर्ड को डिजिटल कर दिया गया है।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपीलों को स्वीकार करते हुए नियमों को अल्ट्रा वायर्स और मनमाना दोनों पाया।
1. नियम बनाने की शक्ति पर (अल्ट्रा वायर्स) कोर्ट ने मौजूदा नियम 19 (उप-नियम i से xv) का विस्तृत विश्लेषण किया और पाया कि वे “या तो संपत्ति की पहचान, या निष्पादक (executant) की स्थिति या आचरण से संबंधित हैं।” कोर्ट ने नए उप-नियमों (xvii) और (xviii) को “गुणात्मक रूप से भिन्न” पाया।
फैसले में कहा गया है: “पहली बार, उप-नियम एक अन्य क़ानून, अर्थात् बिहार भूमि म्यूटेशन अधिनियम, 2011 के तहत पंजीकरण योग्य संपत्ति के लेनदेन के ‘उल्लेख’ के साथ ‘सबूत’ को निर्धारित करता है।”
पीठ ने पंजीकरण अधिनियम की धारा 69 की जांच की, जो नियम बनाने की शक्ति प्रदान करती है। कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि इन नियमों को बनाने की शक्ति धारा 69 या अधिनियम के किसी अन्य प्रावधान से प्राप्त नहीं की जा सकती। कोर्ट ने स्पष्ट कहा: “…हमें यह निष्कर्ष निकालने में कोई संकोच नहीं है कि आक्षेपित उप-नियम धारा 69 या अधिनियम के किसी अन्य प्रावधान के तहत नियम बनाने की शक्ति से परे (अल्ट्रा वायर्स) हैं।”
2. मनमानापन पर हालांकि कोर्ट ने राज्य की “पंजीकरण दस्तावेजों को वास्तविक समय के भूमि कब्जे के साथ सिंक्रनाइज़ करने की मंशा” की सराहना की, लेकिन उसने इसमें “एक बड़ी गायब कड़ी (big missing link)” की पहचान की।
कोर्ट ने बिहार में म्यूटेशन और सर्वेक्षण की “जमीनी हकीकत” पर अपीलकर्ताओं की दलीलों को स्वीकार किया। कोर्ट ने पाया कि राज्य का अपना ‘बिहार विशेष सर्वेक्षण और बंदोबस्त अधिनियम, 2011’ भी यह स्वीकार करता है कि “रैयती रजिस्टर को बनाए नहीं रखा गया है और किए गए म्यूटेशन परिलक्षित नहीं होते हैं।”
इस वास्तविकता को देखते हुए, कोर्ट ने नियमों को मनमाना पाया। कोर्ट ने कहा, “इन परिस्थितियों में और इस तथ्य पर विचार करते हुए कि अनुभवजन्य डेटा को म्यूटेशन के रूप में अनुवादित करने की प्रक्रिया अभी नवजात अवस्था में है… जमाबंदी या होल्डिंग अलॉटमेंट होने तक पंजीकरण को जोड़ना और रोकना अवैध होगा, क्योंकि इसका संपत्ति खरीदने और बेचने के अधिकार और स्वतंत्रता पर सीधा प्रभाव पड़ता है।”
मालिकाना हक का द्वंद्व और विधि आयोग को निर्देश
अपने फैसले में, कोर्ट ने भारतीय संपत्ति कानून में “पंजीकरण और स्वामित्व के बीच के द्वंद्व” पर भी व्यापक टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा कि पंजीकरण अधिनियम, 1908, “दस्तावेजों के पंजीकरण को अनिवार्य करता है, टाइटल (मालिकाना हक) को नहीं,” जिससे एक “प्रकल्पित टाइटलिंग सिस्टम” बनता है, जिसे अदालत में चुनौती दी जा सकती है। कोर्ट ने नोट किया कि यह अनिश्चितता “भारत में भूमि संबंधी मुकदमों की उच्च मात्रा में प्राथमिक योगदानकर्ता है,” जो अनुमानित 66% सिविल मामलों के लिए जिम्मेदार है।
कोर्ट ने सुझाव दिया कि “ब्लॉकचेन जैसी उभरती प्रौद्योगिकियां” “निर्णायक टाइटलिंग (conclusive titling)” की एक प्रणाली की ओर बढ़ने की संभावना प्रदान करती हैं।
इसे देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने भारत के विधि आयोग (Law Commission of India) से अनुरोध किया कि “वे इस मुद्दे की विस्तार से जांच करें, संघ, राज्यों और अन्य सभी हितधारकों के साथ-साथ सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र के विशेषज्ञों से परामर्श करें, और हमारे द्वारा उजागर किए गए मुद्दे पर एक रिपोर्ट तैयार करें।”
अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने सिविल अपीलों को अनुमति दी, हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया, और 10 अक्टूबर, 2019 की उस अधिसूचना को अमान्य घोषित कर दिया, जिसके द्वारा बिहार पंजीकरण नियमावली, 2008 में नियम 19 (xvii) और (xviii) को जोड़ा गया था।




