बॉम्बे हाईकोर्ट ने 3 नवंबर, 2025 को सुनाए गए एक फैसले में, एक निजी एयरलाइन की आंतरिक शिकायत समिति (ICC) की अंतिम रिपोर्ट को चुनौती देने वाली रिट याचिका को खारिज कर दिया है। न्यायमूर्ति एन. जे. जमादार ने फैसला सुनाया कि संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत दायर यह याचिका सुनवाई योग्य नहीं है, क्योंकि याचिकाकर्ता के पास यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (“पॉश एक्ट”) की धारा 18 के तहत एक “प्रभावी वैधानिक अपील” का उपाय उपलब्ध है।
यह याचिका अकासा एयर (प्रतिवादी संख्या 2) में कार्यरत एक कैप्टन द्वारा दायर की गई थी, जिसमें 12 फरवरी, 2025 की ICC रिपोर्ट को रद्द करने और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के गंभीर उल्लंघन का आरोप लगाते हुए नए सिरे से जांच का अनुरोध किया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता (कैप्टन) को प्रतिवादी संख्या 3 (एक ट्रेनी कैप्टन) के प्रशिक्षण की देखरेख के लिए नियुक्त किया गया था। 24 नवंबर, 2024 को, प्रतिवादी संख्या 3 ने ICC में एक शिकायत दर्ज कराई, जिसमें “याचिकाकर्ता के व्यवहार और टिप्पणियों के ऐसे उदाहरणों की सूची दी गई, जिन्होंने प्रतिवादी संख्या 3 के लिए असुविधा पैदा की और पेशेवर सीखने के माहौल को दूषित किया।”
ICC (R1) ने जांच शुरू की, याचिकाकर्ता को शिकायत की प्रति दी और उसका लिखित जवाब प्राप्त किया। समिति ने शिकायतकर्ता (R3), याचिकाकर्ता और तीन गवाहों से पूछताछ की। 20 जनवरी, 2025 को दोनों पक्षों के साथ एक प्रारंभिक जांच रिपोर्ट साझा की गई।
12 फरवरी, 2025 की अपनी अंतिम रिपोर्ट में, ICC ने कई सिफारिशें कीं, जिनमें शामिल हैं:
- याचिकाकर्ता को अंतिम चेतावनी पत्र जारी करना।
- याचिकाकर्ता को पॉश रिफ्रेशर ट्रेनिंग मॉड्यूल से गुजरने की आवश्यकता।
- याचिकाकर्ता को छह महीने की अवधि के लिए किसी भी अपग्रेड के लिए अयोग्य बनाना।
- याचिकाकर्ता के कर्मचारी अवकाश यात्रा लाभों को 45 दिनों की अवधि के लिए रद्द करना।
इस रिपोर्ट और अपनाई गई प्रक्रिया से व्यथित होकर, याचिकाकर्ता ने रिट याचिका के माध्यम से हाईकोर्ट का रुख किया।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता की ओर से सुश्री अंकिता सिंघानिया ने तर्क दिया कि जांच “गंभीर प्रक्रियात्मक उल्लंघनों से भरी” थी। “चुनौती का मुख्य आधार” यह था कि “गवाहों से जिरह (cross-examine) करने के याचिकाकर्ता के अधिकार से पूरी तरह वंचित” किया गया और व्यक्तिगत सुनवाई से इनकार किया गया, जो “प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का घोर उल्लंघन” था।
याचिकाकर्ता के वकील ने घनश्याम मिश्रा एंड संस प्राइवेट लिमिटेड बनाम एडलवाइस एसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए दलील दी कि “प्राकृतिक न्याय के घोर उल्लंघन” के मामलों में, वैकल्पिक उपाय की मौजूदगी रिट क्षेत्राधिकार के प्रयोग पर रोक नहीं लगाती है। यह भी तर्क दिया गया कि एक निजी संस्था की ICC भी एक वैधानिक सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वहन करती है, जिससे वह सुश्री एक्स बनाम आंतरिक शिकायत समिति मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले के अनुसार रिट क्षेत्राधिकार के अधीन आती है।
इसके विपरीत, ICC (R1) और अकासा एयर (R2) की ओर से सुश्री पायल चटर्जी ने दो मुख्य आधारों पर याचिका का विरोध किया। पहला, याचिकाकर्ता के पास पॉश एक्ट की धारा 18 के तहत “प्रभावी वैधानिक अपील” का उपाय है, जहां सभी कथित प्रक्रियात्मक चूकों की जांच की जा सकती है। दूसरा, प्रतिवादी निजी संस्थाएं हैं और अनुच्छेद 12 के तहत ‘राज्य’ की परिभाषा में नहीं आते हैं, इसलिए उन पर रिट क्षेत्राधिकार लागू नहीं होता। इसके लिए आर. एस. मदिरेड्डी एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया गया, जिसमें एयर इंडिया लिमिटेड के निजीकरण के बाद उस पर रिट क्षेत्राधिकार समाप्त माना गया था।
न्यायालय का विश्लेषण और निष्कर्ष
न्यायमूर्ति जमादार ने याचिका की स्वीकार्यता पर दोनों आपत्तियों का विश्लेषण किया।
1. निजी संस्थाओं के खिलाफ पोषणीयता: अदालत ने स्वीकार किया कि अनुच्छेद 226 का दायरा व्यापक है, लेकिन फेडरल बैंक लिमिटेड बनाम सागर थॉमस और सेंट मैरी एजुकेशन सोसाइटी बनाम राजेंद्र प्रसाद भार्गव के मामलों का हवाला देते हुए कहा कि एक निजी निकाय के खिलाफ रिट तभी दायर की जा सकती है, जब वह “सार्वजनिक कानून तत्व” (public law element) वाले “सार्वजनिक कार्य” (public function) का निर्वहन करता हो।
अदालत ने सुश्री एक्स मामले को अलग करते हुए, एक ICC द्वारा जांच करने से इनकार करने और पहले से की गई जांच में कथित दोष के बीच अंतर स्पष्ट किया। न्यायमूर्ति जमादार ने कहा: “एक गलत निष्कर्ष या प्रक्रिया में दोष आवश्यक रूप से सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वहन करने में विफलता नहीं माना जाएगा। ज़्यादा से ज़्यादा, यह क्षेत्राधिकार के भीतर एक त्रुटि होगी।”
अदालत ने निष्कर्ष निकाला, “इस प्रकार, मैं याचिकाकर्ता की ओर से दी गई इस दलील को स्वीकार करने के लिए इच्छुक नहीं हूं कि, मामले के तथ्यों में, रिट याचिका … प्रतिवादी संख्या 1 के खिलाफ इस आधार पर पोषणीय होगी कि वह एक सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वहन कर रहा था।”
2. वैकल्पिक उपचार की उपस्थिति में पोषणीयता: अदालत ने प्राकृतिक न्याय के उल्लंघन के दावे पर कहा कि, हालांकि अपवाद मौजूद हैं, लेकिन राधा कृष्ण इंडस्ट्रीज बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि “जब कोई अधिकार एक क़ानून द्वारा बनाया जाता है, जो स्वयं उस अधिकार या दायित्व को लागू करने के लिए उपाय या प्रक्रिया निर्धारित करता है, तो… उस विशेष वैधानिक उपाय का सहारा लिया जाना चाहिए।”
जिरह से इनकार के तर्क पर, अदालत ने के. एल. त्रिपाठी बनाम एसबीआई मामले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि “जिरह का अधिकार निष्पक्ष सुनवाई का हिस्सा है, लेकिन जहां तथ्यों के संबंध में कोई विवाद नहीं है… वहां जिरह के औपचारिक अवसर की अनुपस्थिति मात्र से… कोई वास्तविक पूर्वाग्रह नहीं होता।”
“प्रथम दृष्टया मूल्यांकन” पर, अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता ने प्रारंभिक रिपोर्ट में कई घटनाओं को “उसी रूप में स्वीकार” (admitted the incidents, as such) किया था, हालांकि उन्होंने इरादे और निष्कर्षों पर विवाद किया था। इस संदर्भ में, अदालत ने माना: “इन परिस्थितियों में, इस अदालत का सुविचारित मत है कि गवाहों से जिरह के अवसर से इनकार करने से ऐसा कोई पूर्वाग्रह नहीं हुआ जो रिट क्षेत्राधिकार के प्रयोग को उचित ठहराए।”
मौखिक सुनवाई न देने के आधार पर, अदालत ने धर्मपाल सत्यपाल लिमिटेड बनाम डिप्टी कमिश्नर ऑफ सेंट्रल एक्साइज का हवाला देते हुए कहा कि यह “हर मामले में अनिवार्य नहीं” है। अदालत ने नोट किया कि याचिकाकर्ता को प्रारंभिक निष्कर्षों के खिलाफ “अभ्यावेदन (representation) देने का अवसर दिया गया था।”
अदालत ने अंत में निष्कर्ष निकाला: “उपरोक्त विचार का सार यह है कि मामले के तथ्य ऐसे नहीं हैं जो वैधानिक अपील के उपाय की उपलब्धता के बावजूद, रिट क्षेत्राधिकार के प्रयोग को उचित ठहराते हों।”
अंतिम निर्णय
हाईकोर्ट ने रिट याचिका खारिज कर दी। हालांकि, अदालत ने याचिकाकर्ता को इस आदेश की तारीख से चार सप्ताह की अवधि के भीतर पॉश एक्ट की धारा 18 के तहत वैधानिक अपील दायर करने की स्वतंत्रता दी। अदालत ने निर्देश दिया कि यदि ऐसी अपील दायर की जाती है, तो “इस याचिका को चलाने में याचिकाकर्ता द्वारा खर्च किए गए समय को, यदि परिसीमा (limitation) का प्रश्न उठता है, तो ध्यान में रखा जा सकता है।”
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि उसकी टिप्पणियां केवल “याचिका की स्वीकार्यता” (tenability) तक सीमित हैं और अपीलीय प्राधिकारी द्वारा गुण-दोष (merits) के आधार पर किए जाने वाले किसी भी निर्णय को प्रभावित नहीं करेंगी।




