हिंदू रीति-रिवाजों से विवाह करने वाले ‘हिंदूकृत’ अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर हिंदू विवाह अधिनियम लागू होगा: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में फैमिली कोर्ट के उस आदेश की पुष्टि की है, जिसमें ‘लंबडा (बंजारा)’ अनुसूचित जनजाति से संबंधित एक महिला द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के तहत दायर तलाक की याचिका को विचारणीय माना गया था। न्यायमूर्ति अनिल क्षत्रपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ ने कहा कि यदि अनुसूचित जनजाति के पक्षकारों ने “हिंदूकरण” कर लिया है और हिंदू रीति-रिवाजों और परंपराओं के अनुसार अपना विवाह संपन्न किया है, तो HMA की धारा 2(2) के तहत वैधानिक छूट के बावजूद, उन पर अधिनियम के प्रावधान लागू होंगे।

अदालत ने यह फैसला 4 नवंबर, 2025 को सुनाया, जिसमें पति (अपीलकर्ता) द्वारा फैमिली कोर्ट के 9 फरवरी, 2024 के आदेश को चुनौती देने वाली अपील को खारिज कर दिया गया। फैमिली कोर्ट ने पत्नी (प्रतिवादी) की तलाक याचिका को विचारणीय पाया था।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला पति द्वारा फैमिली कोर्ट एक्ट, 1984 की धारा 19 के तहत दायर एक अपील से संबंधित है। प्रतिवादी (पत्नी), जो एक आईएएस अधिकारी हैं, ने HMA की धारा 13(1)(i)(b) के तहत तलाक के लिए याचिका दायर की थी। अपीलकर्ता (पति), जो आंध्र प्रदेश में एक सहायक कार्यकारी अभियंता है, ने नागरिक प्रक्रिया संहिता के आदेश VII नियम 11 के तहत एक आवेदन दायर करके इस याचिका को खारिज करने की मांग की थी।

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अपीलकर्ता की मुख्य दलील यह थी कि दोनों पक्ष “लंबडी (बंजारा)” समुदाय से हैं, जो संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 के तहत एक अधिसूचित अनुसूचित जनजाति है। उन्होंने तर्क दिया कि HMA की धारा 2(2) में दी गई वैधानिक छूट के मद्देनजर, यह अधिनियम उन पर लागू नहीं होता है, और इस प्रकार फैमिली कोर्ट के पास इस मामले की सुनवाई का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है।

दोनों पक्षों का विवाह 2 फरवरी, 1998 को हुआ था और 13 मार्च, 1999 को इस विवाह से एक बच्चे का जन्म हुआ।

फैमिली कोर्ट ने अपीलकर्ता के आवेदन को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि “संभावनाओं की प्रबलता” के आधार पर, विवाह हिंदू रीति-रिवाजों और समारोहों के अनुसार संपन्न हुआ था। अदालत ने टिप्पणी की थी कि पक्षकार “सामाजिक और शैक्षिक रूप से उन्नत हो चुके हैं और स्पष्ट रूप से समाज की मुख्यधारा में शामिल हो गए हैं” और इस प्रकार तलाक की याचिका को विचारणीय माना था। पति ने इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की थी।

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पक्षकारों की दलीलें

अपीलकर्ता (पति) के तर्क: अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि विवाह आंध्र प्रदेश में लंबडी जनजाति के बीच “प्रचलित पारंपरिक संस्कारों, परंपराओं और सिद्धांतों” के अनुसार संपन्न हुआ था। उन्होंने दलील दी कि यद्यपि कुछ प्रतीकात्मक तत्व हिंदू विवाहों के समान थे, लेकिन ‘सप्तपदी’ (सात फेरे) की आवश्यक हिंदू रस्म नहीं निभाई गई थी। उन्होंने जोर देकर कहा कि लंबडी समुदाय का “हिंदूकरण” नहीं हुआ है और वह अभी भी अपने विशिष्ट पारंपरिक कानूनों का पालन करता है। इसलिए, उन्होंने दावा किया कि HMA की धारा 2(2) के तहत छूट पूर्ण थी और याचिका विचारणीय नहीं थी।

प्रतिवादी (पत्नी) के तर्क: प्रतिवादी ने इसका खंडन करते हुए कहा कि विवाह “हिंदू पारंपरिक संस्कारों और अनुष्ठानों के अनुसार” संपन्न हुआ था। अपनी गवाही में, उन्होंने कहा: “…मैंने लाल रंग की शादी की पोशाक पहनी थी और अपने पैरों की उंगलियों में ‘बिछिया’ (एक टो रिंग) पहनी थी, जो एक हिंदू दुल्हन की प्रतीकात्मक छवि है। प्रतिवादी ने ‘आलता’ लगाया… मेरे गले में एक वैवाहिक माला यानी ‘मंगलसूत्र’ बांधा और अंत में हमने अपने सभी रिश्तेदारों, परिवार और हिंदू पुजारी की उपस्थिति में पवित्र अग्नि के सामने ‘सात फेरे’ लिए…”

उन्होंने यह भी कहा कि लंबडा समुदाय “हिंदूकरण” की प्रक्रिया से गुजरा है और उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी (LBSNAA) में जमा किए गए अपने विवरणात्मक रोल फॉर्म में अपना धर्म “हिंदू” घोषित किया था। प्रतिवादी ने यह भी बताया कि अपीलकर्ता ने विवाह की एक तस्वीर (Ex PW1/3) को स्वीकार किया था और फैमिली कोर्ट ने समारोह की अन्य तस्वीरें और वीडियो, जो उसके कब्जे में थे, पेश नहीं करने पर उसके खिलाफ सही ही प्रतिकूल निष्कर्ष निकाला था।

प्रतिवादी ने सुप्रीम कोर्ट के लबिश्वर मांझी बनाम प्राण मांझी एवं अन्य (2000) 8 SCC 587 के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था कि यदि अनुसूचित जनजाति से संबंधित पक्ष हिंदू रीति-रिवाजों से शादी करना चुनते हैं, तो उनका विवाह HMA द्वारा शासित होगा।

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हाईकोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष

हाईकोर्ट ने अपने विश्लेषण को चार प्रमुख घटकों में विभाजित किया: HMA की धारा 2(2) की प्रयोज्यता, क्या पक्षकारों का ‘हिंदूकरण’ हुआ था, इसका निर्धारण, अपीलकर्ता द्वारा की गई स्वीकृतियां और सामाजिक संदर्भ।

HMA की धारा 2(2) और धारा 7 की प्रयोज्यता: अदालत ने कहा कि मुख्य प्रश्न यह था कि क्या पक्षकारों ने “हिंदू संस्कारों और रीति-रिवाजों को इस हद तक आत्मसात कर लिया है कि HMA के प्रावधान लागू होंगे।” HMA की धारा 7 (हिंदू विवाह के लिए समारोह) का विश्लेषण करते हुए, पीठ ने पाया कि अधिनियम ‘सप्तपदी’ को वैधानिक मान्यता देता है, लेकिन “इसे हर हिंदू विवाह की वैधता के लिए अनिवार्य नहीं बनाता।” कानून हिंदू समुदायों के बीच “रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों की बहुलता” को स्वीकार करता है।

‘हिंदूकरण’ का निर्धारण: अदालत ने विशिष्ट हिंदू अनुष्ठानों (‘बिछिया’ पहनना, ‘मंगलसूत्र’ बांधना और ‘सात फेरे’ लेना) के प्रदर्शन के संबंध में प्रतिवादी की गवाही को विश्वसनीय पाया। इसने नृवंशविज्ञान अध्ययनों को भी महत्व दिया, जैसे कि इंटरनेशनल जर्नल ऑफ इंग्लिश लिटरेचर एंड सोशल साइंसेज से उद्धृत एक अध्ययन, जिसमें कहा गया था, “विवाह का सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक, मंगलसूत्र, दूल्हे द्वारा दुल्हन के गले में बांधा जाता है… तेलुगु परंपरा के अनुसार,” यह निष्कर्ष निकालते हुए कि “वर्तमान प्रणाली लंबडा और हिंदू प्रणालियों का मिश्रण है।”

पीठ ने लबिश्वर मांझी (उपरोक्त) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर बहुत भरोसा किया, जिसमें यह माना गया था: “…हालांकि पक्ष मूल रूप से संथाल अनुसूचित जनजाति के थे, लेकिन वे हिंदूकृत हैं और वे हिंदू परंपराओं का पालन कर रहे हैं। इसलिए, हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि उप-धारा 2 लागू नहीं होगी…”

हाईकोर्ट ने सतप्रकाश मीणा बनाम अलका मीणा (2021:DHC:1989) में अपने स्वयं के 先例 (precedent) का भी हवाला दिया, जिसमें यह दोहराया गया था कि, “यदि किसी जनजाति के सदस्य स्वेच्छा से हिंदू रीति-रिवाजों, परंपराओं और संस्कारों का पालन करना चुनते हैं, तो उन्हें HMA, 1955 के प्रावधानों के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता है।” सतप्रकाश मीणा के फैसले में आगे यह भी कहा गया था कि हिंदू रीति-रिवाजों का पालन करने वाले पक्षकारों को “पारंपरिक अदालतों” में भेजना, जिनमें उचित प्रक्रियाओं का अभाव हो सकता है, “HMA, 1955 जैसे क़ानून को लागू करने के उद्देश्य के विपरीत” होगा।

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स्वीकृतियां और प्रमाण का अभाव: अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता “अपनी जिरह में हिंदू रीति-रिवाजों और परंपराओं के अनुसार विवाह के संपन्न होने के संबंध में प्रतिवादी की गवाही को चुनौती देने में विफल रहा।” कानूनी सिद्धांतों का हवाला देते हुए, फैसले में कहा गया, “यह सुस्थापित है कि यदि किसी गवाह के मुख्य-परीक्षण में दिए गए बयान की सत्यता को जिरह में चुनौती नहीं दी जाती है, तो अदालत यह निष्कर्ष निकालने के लिए उचित है कि उस अचुनौतीपूर्ण बयान की सत्यता पर कोई विवाद नहीं है।”

इसके अलावा, पीठ ने पाया कि अपीलकर्ता “यह प्रदर्शित करने के लिए कोई ठोस या पुष्टिकारक साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफल रहा कि विवाह विशेष रूप से लंबडा समुदाय की पारंपरिक प्रथाओं के अनुसार किया गया था।”

निष्कर्ष और निर्णय

अपने फैसले का समापन करते हुए, हाईकोर्ट ने माना कि फैमिली कोर्ट का निर्णय सही था। पीठ ने कहा, “साक्ष्यों, दलीलों और फैमिली कोर्ट द्वारा दर्ज निष्कर्षों का समग्र रूप से अध्ययन करने पर, यह अदालत इस निष्कर्ष में कोई दुर्बलता नहीं पाती है कि विचाराधीन विवाह हिंदू रीति-रिवाजों और परंपराओं के अनुसार संपन्न हुआ था और इसलिए, यह HMA द्वारा शासित है।”

अदालत ने फैसला सुनाया कि अपीलकर्ता यह साबित करने का भार उठाने में विफल रहा कि विवाह विशेष रूप से जनजातीय कानून के तहत संपन्न हुआ था। फैसले में कहा गया, “परिणामस्वरूप, फैमिली कोर्ट यह मानने में उचित था कि विवाह के विघटन की मांग केवल हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के प्रावधानों के तहत ही की जा सकती है।”

निचली अदालत के फैसले में हस्तक्षेप करने का कोई कारण न पाते हुए, हाईकोर्ट ने अपील खारिज कर दी।

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