सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को केंद्र और महाराष्ट्र सरकार से यह बताने को कहा कि मुंबई में बांद्रा-वर्ली सी लिंक परियोजना के लिए समुद्र से पुनः प्राप्त की गई भूमि के “वास्तविक लाभार्थी” कौन हैं। अदालत ने यह टिप्पणी उस याचिका पर सुनवाई के दौरान की, जिसमें इस भूमि पर व्यावसायिक विकास को रोकने की मांग की गई है।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत,न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने केंद्र और राज्य सरकार का पक्ष रख रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा,
“हम जानना चाहते हैं कि असली लाभार्थी कौन हैं। इसके पीछे असली खिलाड़ी कौन हैं। हमें यह जानना है।”
मेहता ने बताया कि परियोजना को पर्यावरणीय स्वीकृति मिल चुकी है और किसी प्रकार की अनियमितता नहीं हुई है।
वहीं, याचिकाकर्ता ज़ोरू दरायस भठेना की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन ने कहा कि समुद्र से पुनः प्राप्त भूमि पर अब लग्जरी आवासीय परियोजनाएं बनाई जा रही हैं, जबकि पहले यह वादा किया गया था कि इस भूमि का उपयोग न तो आवासीय और न ही व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए होगा।
उन्होंने कहा कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने 26 अगस्त को उनकी याचिका खारिज कर दी थी।
इस दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने दलील दी कि संबंधित भूमि कोस्टल रेगुलेशन जोन (सीआरज़ेड) क्षेत्र में नहीं आती, इसलिए पर्यावरण संरक्षण अधिनियम इसके विकास पर लागू नहीं होता।
“अगर यह भूमि सीआरज़ेड क्षेत्र में नहीं आती तो फिर पर्यावरण संरक्षण अधिनियम कैसे लागू हो सकता है?” उन्होंने कहा।
शंकरनारायणन ने जवाब में कहा कि रोहतगी उनके तर्कों को पहले से ही अनुमानित कर रहे हैं, जबकि उन्होंने अभी विस्तृत दलीलें पेश नहीं की हैं।
भठेना की अपील में कहा गया कि महाराष्ट्र सरकार ने 1993 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (MoEF) से समुद्र से भूमि पुनः प्राप्त कर सी लिंक बनाने की अनुमति मांगी थी। उस समय सीआरज़ेड अधिसूचना 1991 प्रभावी थी, जो उच्च ज्वार और निम्न ज्वार रेखा के बीच भूमि पुनः प्राप्ति पर रोक लगाती थी।
बाद में 1999 में संशोधन कर पुलों और सी लिंक परियोजनाओं के लिए सीमित भूमि पुनः प्राप्ति की अनुमति दी गई। इसके बाद 26 अप्रैल 2000 को मंत्रालय ने अतिरिक्त भूमि पुनः प्राप्त करने की अनुमति दी, लेकिन यह स्पष्ट शर्त लगाई कि इस भूमि के किसी भी हिस्से का उपयोग आवासीय या व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए नहीं किया जाएगा।
याचिका में कहा गया कि यह शर्त इसलिए लगाई गई थी ताकि पुनः प्राप्त भूमि का उपयोग केवल सार्वजनिक या हरित उद्देश्यों के लिए हो, न कि निजी लाभ के लिए।
याचिकाकर्ता ने कहा कि महाराष्ट्र राज्य सड़क विकास निगम (MSRDC) ने 10 जनवरी 2024 को पुनः प्राप्त भूमि के व्यावसायिक विकास के लिए निविदा जारी की, जो लगभग 57 एकड़ (2,32,463 वर्ग मीटर) क्षेत्र में फैली है।
यह निविदा “बांद्रा में एमएसआरडीसी भूमि पार्सल के विकास के लिए डेवलपर के चयन” के नाम से जारी की गई थी। इसके तहत आदाणी प्रॉपर्टीज़ लिमिटेड को 16 मार्च 2024 को “चयनित बोलीदाता” घोषित किया गया और स्वीकृति पत्र जारी किया गया।
भठेना ने कहा कि यह कदम न केवल पर्यावरण मंत्रालय द्वारा लगाई गई शर्तों का उल्लंघन है, बल्कि सार्वजनिक न्यास सिद्धांत, सतत विकास सिद्धांत और पीढ़ीगत समानता के सिद्धांत के भी विपरीत है।
बॉम्बे हाईकोर्ट ने भठेना की याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी थी कि 2000 की शर्तें पुराने सीआरज़ेड 1991 नियमों पर आधारित थीं, जबकि अब 2019 की अधिसूचना लागू है और उसके अनुसार यह भूमि सीआरज़ेड क्षेत्र में नहीं आती।
भठेना ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि हाईकोर्ट का यह दृष्टिकोण “सीआरज़ेड व्यवस्था में खामी” पैदा करता है। इससे किसी भी डेवलपर या सार्वजनिक निकाय को पहले पर्यावरणीय उद्देश्य से भूमि पुनः प्राप्त करने और बाद में उसे व्यावसायिक उपयोग के लिए खोलने की छूट मिल जाएगी।
उन्होंने कहा कि यह व्याख्या पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 की भावना के विपरीत है और पर्यावरणीय सुरक्षा को निष्प्रभावी बनाती है।
पीठ ने केंद्र और राज्य सरकार से इस भूमि विकास में शामिल सभी लाभार्थियों और संस्थाओं की जानकारी मांगी है। अदालत ने कहा कि वह सरकार के जवाब दाखिल करने के बाद इस मामले की अगली सुनवाई करेगी।

                                    
 
        


