दिल्ली हाईकोर्ट ने सोमवार को एक महत्वपूर्ण अंतरिम निर्देश जारी करते हुए कहा कि कानून की पढ़ाई कर रहे छात्रों को केवल उपस्थिति (attendance) कम होने के आधार पर परीक्षा में बैठने से नहीं रोका जा सकता।
जस्टिस प्रतिभा एम सिंह और जस्टिस अमित शर्मा की बेंच ने यह फैसला सुनाया। कोर्ट ने इसके साथ ही बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) को निर्देश दिया है कि वह तीन-वर्षीय और पांच-वर्षीय एलएलबी पाठ्यक्रमों के लिए अनिवार्य उपस्थिति के नियमों की व्यापक समीक्षा करे। हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि कानूनी शिक्षा का दायरा केवल क्लासरूम में दी जाने वाली शिक्षा से कहीं बड़ा और समग्र है।
क्या है पूरा मामला?
हाईकोर्ट यह आदेश 2016 के एक दुखद मामले की सुनवाई के दौरान दिया, जिसमें एमिटी लॉ यूनिवर्सिटी के एक छात्र ने कथित तौर पर आत्महत्या कर ली थी। छात्र को अपर्याप्त उपस्थिति के कारण परीक्षा में बैठने से रोक दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में इस मामले का संज्ञान लिया और मार्च 2017 में इसे दिल्ली हाईकोर्ट को ट्रांसफर कर दिया।
हाईकोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ
सुनवाई के दौरान, हाईकोर्ट की बेंच ने माना कि कानूनी शिक्षा के लिए एक समग्र दृष्टिकोण (holistic approach) की आवश्यकता है। इसे केवल रटकर सीखने या एक-आयामी शिक्षण तक सीमित नहीं रखा जा सकता। कोर्ट के अनुसार, कानूनी शिक्षा में “कानून को समझना, उसे व्यवहार में लागू करना और उसे प्रभावी ढंग से कार्यान्वित करना” जैसे कई महत्वपूर्ण पहलू शामिल हैं।
बेंच ने केवल उपस्थिति पर आधारित मौजूदा कठोर मॉडल की आलोचना की। कोर्ट ने कहा, “ऐसी समग्र शिक्षा के लिए केवल क्लासरूम में उपस्थिति न तो आवश्यक है और न ही पर्याप्त है।”
कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि छात्रों द्वारा मूट कोर्ट, सेमिनार, मॉक पार्लियामेंट (सांकेतिक संसद), वाद-विवाद और अदालती कार्यवाही में भाग लेने जैसी गतिविधियों को भी उनकी अकादमिक व्यस्तता का हिस्सा माना जाना चाहिए और इसका श्रेय (credit) उन्हें मिलना चाहिए।
अदालत ने कहा, “अनिवार्य उपस्थिति के नियम कभी-कभी छात्रों को एक विशेष स्थान पर रहने के लिए मजबूर करके उनकी रचनात्मक स्वतंत्रता को भी बाधित करते हैं, जहाँ कई बार कोई मूल्य-संवर्धन नहीं होता।”
अपने फैसले में कोर्ट ने कहा, “मौजूदा नियमों पर पुनर्विचार करने और समय के साथ इन्हें बदलने की जरूरत है। छात्रों को परीक्षा से रोकने के बजाय, वैकल्पिक और कम कड़े तरीकों को खोजा जाना चाहिए।”
अदालत द्वारा जारी प्रमुख निर्देश
छात्रों के जीवन और उनके मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए, हाईकोर्ट ने कई बाध्यकारी निर्देश जारी किए:
- छात्रों को अंतरिम राहत: कोर्ट ने एक अंतरिम उपाय के तौर पर निर्देश दिया कि “अपर्याप्त उपस्थिति के आधार पर किसी भी छात्र को परीक्षा देने से नहीं रोका जाएगा।”
- उपस्थिति नियमों पर सीमा: कोई भी लॉ कॉलेज या विश्वविद्यालय, BCI द्वारा निर्धारित न्यूनतम उपस्थिति प्रतिशत से अधिक कठोर नियम नहीं लागू कर सकता।
- BCI को समीक्षा का आदेश: बार काउंसिल ऑफ इंडिया को स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि वह “भारत में तीन-वर्षीय और पांच-वर्षीय एलएलबी पाठ्यक्रमों के लिए अनिवार्य उपस्थिति के मानदंडों का पुनर्मूल्यांकन” करे। यह समीक्षा नई शिक्षा नीति (NEP) 2020 और 2023 के UGC नियमों के अनुरूप होनी चाहिए, जो लचीलेपन पर जोर देते हैं।
- अतिरिक्त गतिविधियों को मान्यता: BCI को अपने नियमों में संशोधन करके मूट कोर्ट, सेमिनार, और कोर्ट की सुनवाई में भाग लेने जैसी गतिविधियों के लिए छात्रों को क्रेडिट देने की व्यवस्था करनी होगी।
- शिकायत निवारण समितियां: देश भर के सभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को अपने यहाँ शिकायत निवारण समितियां (Grievance Redressal Committees) स्थापित करने का निर्देश दिया गया।
- समितियों में 50% छात्र: यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (UGC) को यह सुनिश्चित करने के लिए विचार-विमर्श करने को कहा गया है कि इन शिकायत समितियों की कुल सदस्यता में 50% छात्र हों। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि छात्र इन समितियों में केवल “विशेष आमंत्रित” (special invitees) नहीं, बल्कि “सक्रिय, पूर्णकालिक सदस्य” (active, full-time members) होने चाहिए, जिसमें महिला, पुरुष और अन्य लिंगों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो।
इस मामले में विस्तृत फैसले की प्रति का अभी इंतजार है।




