सुप्रीम कोर्ट ने 29 अक्टूबर 2025 को दिए एक फैसले में कहा है कि यदि विक्रेता ने निर्धारित अवधि के बाद अतिरिक्त राशि स्वीकार करके अनुबंध समाप्त करने के अपने अधिकार का परित्याग (waiver) कर दिया है, तो अनुबंध के विशिष्ट निष्पादन (specific performance) के लिए दायर वाद, अनुबंध समाप्ति सूचना को अलग से अवैध घोषित करने की प्रार्थना किए बिना भी ग्राह्य है।
न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की खंडपीठ ने अपीलकर्ता अन्नामलाई की अपीलें स्वीकार करते हुए मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द कर दिया और प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित विशिष्ट निष्पादन के डिक्री को बहाल किया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 8 जनवरी 2010 के एक संपत्ति विक्रय अनुबंध से संबंधित दो वादों से उत्पन्न हुआ था।
- O.S. No. 73 of 2010: अन्नामलाई ने सरस्वती (D-1), धर्मलिंगम (D-2) और वसंती (D-3) के खिलाफ विक्रय अनुबंध के विशिष्ट निष्पादन के लिए दायर किया था।
- O.S. No. 32 of 2011 (पुनः क्रमांकित O.S. No. 60 of 2012): वसंती (D-3, प्रथम प्रतिवादी) ने अन्नामलाई के विरुद्ध अपने स्वामित्व की घोषणा और स्थायी निषेधाज्ञा के लिए दायर किया था।
अन्नामलाई ने आरोप लगाया कि D-1 और D-2 ने दो संपत्तियां ₹4,80,000 में बेचने पर सहमति दी थी। ₹4,70,000 अग्रिम भुगतान किया गया था और ₹10,000 छह महीने में देना था। बाद में D-1 और D-2 ने अतिरिक्त ₹2,00,000 मांगे, जिनमें से ₹1,95,000 का भुगतान 9 जून 2010 को किया गया, जिसका उल्लेख अनुबंध पर किया गया था।
20 अगस्त 2010 को D-1 और D-2 ने अनुबंध समाप्ति की सूचना भेजी, जबकि तीन दिन पहले, 17 अगस्त को, उन्होंने पहली संपत्ति D-3 (वसंती, जो D-1 की बेटी है) को बेच दी थी।
निचली अदालत ने अन्नामलाई का वाद यह कहते हुए खारिज कर दिया कि अनुबंध वास्तव में ऋण सुरक्षा था, विक्रय नहीं। प्रथम अपीलीय न्यायालय ने यह निष्कर्ष “अविवेकपूर्ण” बताते हुए पलट दिया और कहा कि यह एक वैध विक्रय अनुबंध था।
मद्रास उच्च न्यायालय ने 2 फरवरी 2018 को दोनों अपीलें स्वीकार करते हुए विशिष्ट निष्पादन की डिक्री को रद्द कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तर्क
अन्नामलाई की ओर से कहा गया कि प्रथम अपीलीय न्यायालय के निष्कर्ष सबूतों पर आधारित थे और उच्च न्यायालय को धारा 100 सीपीसी (CPC) के तहत तथ्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था।
प्रतिवादियों का कहना था कि वादी ने झूठे दस्तावेज़ तैयार किए, छह माह की अवधि में कार्रवाई नहीं की और अनुबंध समाप्ति को चुनौती नहीं दी, इसलिए वाद ग्राह्य नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट की विवेचना
पीठ ने तीन प्रश्न तय किए:
- क्या उच्च न्यायालय ने ₹1,95,000 की अतिरिक्त राशि के संबंध में तथ्यों की गलत व्याख्या की?
- क्या अनुबंध समाप्ति को अवैध घोषित किए बिना विशिष्ट निष्पादन का वाद ग्राह्य था?
- क्या वादी को विवेकाधीन राहत (discretionary relief) मिलनी चाहिए थी?
(A) अतिरिक्त भुगतान और तत्परता (Readiness & Willingness)
अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय ने “त्रुटि” की थी जब उसने ₹1,95,000 की भुगतान रसीद (Exb.A-2) को अस्वीकार कर दिया। D-1 और D-2 ने अपने हस्ताक्षर स्वीकार किए थे, जिससे भुगतान का अनुमान उठता है।
अदालत ने कहा,
“एक बार जब किसी दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर से धन प्राप्ति स्वीकार की जाती है, तो यह माना जाएगा कि वह वैध भुगतान के लिए किया गया था। ऐसी स्थिति में, D-1 और D-2 पर यह भारी दायित्व था कि वे परिस्थितियों की व्याख्या करें…”
इस आधार पर कोर्ट ने कहा कि उच्च न्यायालय को प्रथम अपीलीय न्यायालय के तथ्यात्मक निष्कर्षों में दखल नहीं देना चाहिए था।
पीठ ने आगे कहा कि छह महीने की अवधि समाप्त होने के बाद अतिरिक्त राशि स्वीकार कर D-1 और D-2 ने अनुबंध को “विद्यमान मानते हुए” अपने अधिकार का त्याग किया।
(B) वाद की ग्राह्यता
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जहां अनुबंध समाप्ति से वादी के अधिकारों पर “संदेह या बादल” उत्पन्न होता है, वहां समाप्ति को अवैध घोषित करने की प्रार्थना जरूरी होती है। लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं था।
न्यायालय ने कहा,
“छह महीने की अवधि समाप्त होने के बाद ₹1,95,000 स्वीकार कर D-1 और D-2 ने न केवल अग्रिम राशि जब्त करने का अधिकार छोड़ा, बल्कि अनुबंध को जारी माना। इसके अलावा, अनुबंध का एक भाग D-3 के नाम पर पहले ही हस्तांतरित कर देना स्वयं अनुबंध का उल्लंघन था।”
इसलिए, अनुबंध समाप्ति “शून्य (void)” और “प्रतिवादियों द्वारा अनुबंध का उल्लंघन” थी। अतः वादी सीधे विशिष्ट निष्पादन का दावा कर सकता था।
(C) विवेकाधीन राहत (Discretionary Relief)
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि उच्च न्यायालय द्वारा राहत से इंकार के कारण टिकाऊ नहीं हैं। झूठे दस्तावेज़ का दावा पहले ही खारिज हो चुका था।
कोर्ट ने कहा,
“किसी दावे का सिद्ध न होना उसे झूठा नहीं बना देता। कोई कथन तभी झूठा होता है जब उसका कर्ता जानता हो कि वह असत्य है।”
अदालत ने कहा कि जब वादी ने 90% से अधिक राशि और अतिरिक्त भुगतान किया था, तब केवल कब्जे के असिद्ध दावे के आधार पर राहत से वंचित नहीं किया जा सकता।
पीठ ने यह भी नोट किया कि D-3 (वसंती) D-1 और D-2 की रिश्तेदार थी, अतः वह “सद्भावनापूर्वक क्रेता (bona fide purchaser)” नहीं थी।
अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने कहा,
“यह ऐसा मामला नहीं था जिसमें विशिष्ट निष्पादन की विवेकाधीन राहत से इंकार किया जाना चाहिए था।”
अंत में अदालत ने उच्च न्यायालय का निर्णय रद्द करते हुए प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित विशिष्ट निष्पादन की डिक्री को बहाल कर दिया।
अन्नामलाई को निर्देश दिया गया कि वह शेष ₹10,000 की राशि एक माह के भीतर निष्पादन न्यायालय में जमा करे।




