नई दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट्स स्थित जिला न्यायाधीश-01 की अदालत ने अधिवक्ता महमूद प्राचा द्वारा दायर एक अपील को खारिज कर दिया है। इस अपील में 2019 के अयोध्या फैसले को धोखाधड़ी के आधार पर “अमान्य और शून्य” घोषित करने की मांग की गई थी।
जिला न्यायाधीश श्री धर्मेन्दर राणा की अध्यक्षता वाली अदालत ने इस अपील (RCA DJ No. 27/2025) को “पूरी तरह से विलासितापूर्ण और तुच्छ” करार देते हुए खारिज कर दिया। अदालत ने निचली अदालत के उस फैसले की पुष्टि की, जिसमें मुकदमे को ‘कॉज ऑफ एक्शन’ (कार्रवाई का कारण) रहित और कानून द्वारा वर्जित पाया गया था। अदालत ने अपीलकर्ता पर लगाए गए कुल हर्जाने को बढ़ाकर 6,00,000/- रुपये कर दिया।
अपीलकर्ता ने 25.04.2025 के उस फैसले को चुनौती दी थी, जिसने मूल रूप से उनके मुकदमे को 1,00,000/- रुपये के हर्जाने के साथ खारिज कर दिया था।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता, श्री महमूद प्राचा, ने भारत के माननीय पूर्व मुख्य न्यायाधीश (CJI), श्री धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ द्वारा मराठी में दिए गए एक सार्वजनिक भाषण के आधार पर घोषणा और अनिवार्य निषेधाज्ञा (declaration and mandatory injunction) के लिए एक मुकदमा दायर किया था।
अपीलकर्ता का दावा था कि उस भाषण में, माननीय पूर्व CJI ने “स्वीकार किया कि 09.11.2019 को भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा… (जिसे यहां ‘अयोध्या केस’ कहा गया है) दिया गया निर्णय, उन्हें भगवान श्री राम लला विराजमान (प्रतिवादी) द्वारा प्रदान किए गए समाधान के अनुरूप था।”
इसी व्याख्या के आधार पर, श्री प्राचा के मूल मुकदमे में दो मुख्य राहतें मांगी गई थीं:
- यह घोषणा करना कि 09.11.2019 का अयोध्या निर्णय “धोखाधड़ी से दूषित है, और अमान्य और शून्य है”।
- अयोध्या सिविल अपीलों पर “नए सिरे से निर्णय” देने के लिए एक अनिवार्य निषेधाज्ञा का आदेश देना।
निचली अदालत ने इस मुकदमे को 25.04.2025 को खारिज कर दिया था, जिसके खिलाफ यह वर्तमान अपील दायर की गई थी।
अपीलकर्ता के तर्क
अपीलकर्ता ने निचली अदालत के फैसले को चार मुख्य आधारों पर चुनौती दी:
- ‘लोकस स्टैंडाई’ (Locus Standi): यह तर्क दिया गया कि निचली अदालत ने ‘मुकदमा दायर करने के अधिकार’ के आधार पर मुकदमे को खारिज करके गलती की। अपीलकर्ता ने दलील दी कि चूँकि अयोध्या मामले में मुस्लिम समुदाय के अधिकारों का निर्णय किया गया था, इसलिए “मुस्लिम समुदाय का सदस्य” और एक “पीड़ित व्यक्ति” होने के नाते, उन्हें मुकदमा चलाने का अधिकार था।
- कार्रवाई का कारण (Cause of Action): अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि यह मुकदमा अयोध्या फैसले के गुण-दोष (merits) पर एक अपील नहीं थी, बल्कि धोखाधड़ी पर आधारित एक चुनौती थी। उन्होंने दलील दी कि “संभावित लेखक” (पूर्व CJI) द्वारा एक पक्षकार (भगवान श्री राम लला विराजमान) के साथ संवाद की कथित स्वीकृति “गैरकानूनी हस्तक्षेप” के समान है, जिसने फैसले को दूषित कर दिया।
- कानून द्वारा वर्जित (Barred by Law): यह दलील दी गई कि निचली अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 141 पर गलत भरोसा किया, क्योंकि कोई भी कानून धोखाधड़ी से दूषित निर्णय को चुनौती देने से नहीं रोकता है।
- हर्जाना लगाना: अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि निचली अदालत ने 1,00,000/- रुपये का हर्जाना लगाकर गलती की, और दलील दी कि CPC की धारा 35 (A) ऐसे हर्जाने को अधिकतम 3,000/- रुपये तक सीमित करती है।
अदालत का विश्लेषण और निष्कर्ष
जिला अदालत ने 18.10.2025 के अपने फैसले में अपीलकर्ता के प्रत्येक तर्क का विश्लेषण किया।
‘लोकस स्टैंडाई’ पर: अदालत इस प्रारंभिक मुद्दे पर अपीलकर्ता से सहमत हुई। अदालत ने पाया कि अयोध्या मामले में एक मुकदमा सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड द्वारा एक “प्रतिनिधि मुकदमा” (representative suit) था। न्यायाधीश राणा ने माना: “एक बार जब मुस्लिम समुदाय के सदस्यों के अधिकार शामिल थे, तो अपीलकर्ता, जो खुद को एक धर्मनिष्ठ मुस्लिम होने का दावा करता है, को लोकस स्टैंडाई के आधार पर मुकदमे से बाहर नहीं किया जा सकता है।”
कार्रवाई के कारण पर: यह केंद्रीय मुद्दा था। अदालत ने पाया कि धोखाधड़ी का पूरा दावा एक मौलिक गलतफहमी पर आधारित था। फैसले में कहा गया है कि अपीलकर्ता “अदालत के समक्ष मुकदमेबाजी कर रहे ‘न्यायिक व्यक्तित्व’ (Juristic Personality) और ‘सर्वोच्च ईश्वर’ (Supreme God) के बीच के सूक्ष्म अंतर को समझने में चूक गए हैं, शायद कानून और धर्म की गलतफहमी के कारण।”
अदालत ने कहा कि पूर्व CJI के भाषण में, जिसे अदालत ने उद्धृत किया, उन्होंने “प्रार्थना करने” और “ईश्वर” से “रास्ता खोजने” के लिए कहने का जिक्र किया था।
अदालत ने तब कानूनी भेद को प्रदर्शित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के अयोध्या फैसले को ही विस्तार से उद्धृत किया। जिला न्यायाधीश ने नोट किया कि अयोध्या फैसले ने स्पष्ट रूप से स्पष्ट किया था: “कानूनी व्यक्तित्व ‘स्वयं सर्वोच्च सत्ता’ को प्रदान नहीं किया गया है” और “हिंदू मूर्ति एक न्यायिक इकाई है।”
जिला अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्ता के आरोप “विषय की उसकी घोर उदासीनता और गलत समझ का परिणाम” थे। धोखाधड़ी के आरोप पर, अदालत ने माना कि दिव्य मार्गदर्शन प्राप्त करना, जो अनुच्छेद 25 द्वारा संरक्षित अधिकार है, एक “गहरा आंतरिक और व्यक्तिगत” मामला है और इसे “धोखाधड़ी वाला कार्य” नहीं कहा जा सकता।
कानून द्वारा वर्जित होने पर: हालांकि अदालत इस बात से सहमत थी कि धोखाधड़ी से प्राप्त निर्णय को चुनौती दी जा सकती है, लेकिन उसने मुकदमे को दो अन्य आधारों पर “स्पष्ट रूप से वर्जित” पाया:
- आवश्यक पक्षों को शामिल न करना (Order I Rule IX CPC): अदालत ने पाया कि अपीलकर्ता अयोध्या मामले के मूल पक्षों को शामिल करने में विफल रहा। इसके बजाय, अपीलकर्ता ने माननीय पूर्व CJI को प्रतिवादी के “अगले मित्र” (next friend) के रूप में शामिल करने पर “जोर” दिया। अदालत ने इसे “पूरी तरह से अनुचित” पाया और कहा कि यह “अपीलकर्ता के परोक्ष इरादे” को दर्शाता है।
- न्यायाधीश संरक्षण अधिनियम, 1985 (The Judges Protection Act, 1985): अदालत ने माना कि यह मुकदमा “न्यायाधीश संरक्षण अधिनियम, 1985 की धारा 3 के तहत भी वर्जित” था,” जो न्यायाधीशों को उनके “आधिकारिक या न्यायिक कर्तव्य के निर्वहन” में किए गए किसी भी कार्य या शब्द के लिए दीवानी या आपराधिक कार्यवाही से अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करता है।
प्रक्रिया के दुरुपयोग और हर्जाने पर: अदालत ने मुकदमेबाजी को “पूरी तरह से तुच्छ” करार देते हुए हर्जाना लगाने की कड़ी पुष्टि की। अदालत ने कहा कि “विलासितापूर्ण और तुच्छ मुकदमेबाजी कतार में धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर रहे ईमानदार वादियों के मौलिक अधिकारों पर सीधा हमला है।”
CPC की धारा 35(A) के तहत 3,000/- रुपये की सीमा पर अपीलकर्ता के तर्क को संबोधित करते हुए, अदालत ने माना कि सुप्रीम कोर्ट के बाद के तीन-न्यायाधीशों की पीठ के फैसलों ने तुच्छ मुकदमेबाजी को रोकने के लिए “दंडात्मक और निषेधात्मक हर्जाना” लगाने की अनुमति दी है।
अंतिम निर्णय
अदालत ने अपनी समापन टिप्पणी में “महत्वपूर्ण सार्वजनिक पदाधिकारियों को उनके पद छोड़ने पर निशाना बनाने” की “बहुत नकारात्मक प्रवृत्ति” पर गौर किया।
अदालत ने अपीलकर्ता के कार्यों को, जो एक वरिष्ठ वकील हैं, “परेशान करने वाला” बताया। अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि निचली अदालत द्वारा लगाया गया 1,00,000/- रुपये का हर्जाना “निवारक प्रभाव (deterrent effect) के इच्छित लक्ष्य को प्राप्त करने में विफल” रहा है।
तदनुसार, अपील को 5,00,000/- रुपये के अतिरिक्त हर्जाने के साथ खारिज कर दिया गया। अदालत ने आदेश दिया: “कुल 6,00,000/- रुपये का हर्जाना (1,00,000/- निचली अदालत द्वारा + 5,00,000/- इस अदालत द्वारा) आज से 30 दिनों के भीतर” DLSA, नई दिल्ली के पास जमा किया जाए।




