आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने 8 अक्टूबर, 2025 को सुनाए गए एक फैसले में यह स्पष्ट किया है कि एक सामान्य मुख्तारनामा (GPA)-सह-बिक्री समझौता किसी अचल संपत्ति में ऐसा कोई अधिकार, हक या हित उत्पन्न नहीं करता है, जिसके आधार पर कोई व्यक्ति उस संपत्ति पर कब्जे के लिए एक वैध डिक्री के निष्पादन का विरोध कर सके। यह डिक्री एक ऐसे पक्षकार के पक्ष में थी, जिसके पास उसी संपत्ति के संबंध में पहले से एक वैध बिक्री समझौता था।
न्यायमूर्ति रवि नाथ तिलहरी और न्यायमूर्ति महेश्वर राव कुंचेम की खंडपीठ ने उन दावा याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर पहली अपील को खारिज कर दिया, जो एक डिक्री-धारक को संपत्ति का कब्जा देने में बाधा डाल रहे थे। न्यायालय ने VIII अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, प्रकाशम, ओंगोल के उस आदेश की पुष्टि की, जिसमें याचिकाकर्ताओं के दावे को सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश 21 नियम 97 के तहत खारिज कर दिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह कानूनी विवाद पहले प्रतिवादी, कंपा भास्कर राव (मूल वादी) द्वारा दूसरे प्रतिवादी (मूल प्रतिवादी) के खिलाफ दायर एक विशिष्ट निष्पादन वाद (O.S.No.16 of 2016) से शुरू हुआ था। यह वाद 1 जुलाई, 2006 के एक बिक्री समझौते पर आधारित था। 12 अप्रैल, 2017 को वाद में एकपक्षीय डिक्री पारित की गई, और यह डिक्री अंतिम हो गई।

डिक्री के बाद, वादी ने निर्देशानुसार शेष बिक्री राशि जमा कर दी। जब प्रतिवादी ने बिक्री विलेख निष्पादित करने में विफल रहा, तो वादी ने एक निष्पादन याचिका (E.P.No.59 of 2017) दायर की, और निचली अदालत ने 21 फरवरी, 2018 को उसके पक्ष में एक पंजीकृत बिक्री विलेख निष्पादित किया।
इसके बाद, वादी ने संपत्ति का कब्जा पाने के लिए एक और निष्पादन याचिका (E.P.No.111 of 2019) दायर की। इस स्तर पर, अपीलकर्ताओं (कोंकणला सूर्यप्रकाश राव और एक अन्य) ने CPC के आदेश 21 नियम 97 के तहत एक दावा याचिका (E.A.No.42 of 2019) दायर कर कब्जे का विरोध किया।
अपीलकर्ताओं ने दावा किया कि मूल प्रतिवादी ने 17 जनवरी, 2007 को एक पंजीकृत GPA-सह-बिक्री समझौते के माध्यम से 15,00,000 रुपये के प्रतिफल में संपत्ति उन्हें हस्तांतरित कर दी थी, जिसका उन्होंने पूरा भुगतान कर दिया था। उन्होंने जोर देकर कहा कि उन्हें संपत्ति का कब्जा दे दिया गया था और वे उस परिसर में एक बार और रेस्तरां चला रहे थे। उन्होंने आरोप लगाया कि वादी का 2006 का बिक्री समझौता पिछली तारीख में बनाया गया था और डिक्री मिलीभगत से प्राप्त की गई थी।
निचली अदालत ने सबूतों की जांच के बाद 5 अगस्त, 2024 को अपीलकर्ताओं की दावा याचिका खारिज कर दी, जिसके बाद हाईकोर्ट के समक्ष यह अपील दायर की गई।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ताओं के वकील श्री पी. राजशेखर ने तर्क दिया कि 17 जनवरी, 2007 का GPA-सह-बिक्री समझौता उन्हें वैध रूप से स्वत्वाधिकार हस्तांतरित करता है। उन्होंने दलील दी कि सूरज लैंप एंड इंडस्ट्रीज प्राइवेट लिमिटेड बनाम हरियाणा राज्य (2012) में सुप्रीम कोर्ट का फैसला, जिसमें यह माना गया था कि GPA के माध्यम से बिक्री से स्वत्वाधिकार हस्तांतरित नहीं होता, भविष्यलक्षी (prospective) था और उनके सौदे पर लागू नहीं होता क्योंकि यह फैसला आने से पहले किया गया था।
डिक्री-धारकों के वकील श्री के. वी. विजय कुमार ने अपील का विरोध करते हुए कहा कि उनका बिक्री समझौता (1 जुलाई, 2006) अपीलकर्ताओं के GPA से पहले का है। उन्होंने तर्क दिया कि GPA स्वत्वाधिकार हस्तांतरित नहीं करता है और चूंकि एक वैध डिक्री पारित हो चुकी है और अदालत द्वारा बिक्री विलेख निष्पादित किया जा चुका है, इसलिए वे कब्जे के हकदार हैं।
न्यायालय का विश्लेषण और निष्कर्ष
हाईकोर्ट ने मुख्य मुद्दा यह तय किया कि क्या अपीलकर्ता संपत्ति में अपने अधिकार, हक और हित के निर्धारण के हकदार थे ताकि वे डिक्री के निष्पादन का विरोध कर सकें।
पीठ ने पहले यह स्थापित किया कि वादी का बिक्री समझौता अपीलकर्ताओं के GPA से पहले का था। न्यायालय ने कहा कि रिकॉर्ड पर ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे अपीलकर्ताओं के इस आरोप को साबित किया जा सके कि वादी का समझौता पिछली तारीख में बनाया गया था।
अदालत ने सूरज लैंप मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लेख करते हुए GPA लेनदेन पर कानूनी स्थिति का विस्तृत विश्लेषण किया। न्यायमूर्ति तिलहरी ने पीठ के लिए लिखते हुए सूरज लैंप में निर्धारित सिद्धांत को दोहराया: “अचल संपत्ति का हस्तांतरण बिक्री के माध्यम से केवल एक हस्तांतरण विलेख (बिक्री विलेख) द्वारा ही हो सकता है। एक हस्तांतरण विलेख (कानून द्वारा आवश्यक रूप से मुहरबंद और पंजीकृत) के अभाव में, अचल संपत्ति में कोई अधिकार, हक या हित हस्तांतरित नहीं किया जा सकता है।”
अदालत ने आगे कहा, “एक मुख्तारनामा (Power of Attorney) अचल संपत्ति में किसी भी अधिकार, हक या हित के संबंध में हस्तांतरण का साधन नहीं है।”
अपीलकर्ताओं के इस तर्क पर कि सूरज लैंप का फैसला भविष्यलक्षी था, हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट ने केवल “सुस्थापित कानूनी स्थिति को दोहराया था कि SA/GPA/वसीयत लेनदेन ‘हस्तांतरण’ या ‘बिक्री’ नहीं हैं और ऐसे लेनदेन को पूर्ण हस्तांतरण या conveyance नहीं माना जा सकता है।” न्यायालय ने माना कि इस फैसले ने कोई नया कानूनी प्रस्ताव नहीं रखा था जिसे केवल भविष्य से लागू किया जाना था।
न्यायालय का निर्णय
हाईकोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अपीलकर्ताओं के पास डिक्री-धारक को कब्जा देने में बाधा डालने का कोई कानूनी अधिकार नहीं था। अदालत ने अपने निष्कर्ष को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया:
“बिंदु-ए पर, हम यह मानते हैं कि पहले अपीलकर्ता के पक्ष में दिनांक 17.01.2007 का विशेष सामान्य मुख्तारनामा, पहले अपीलकर्ता के पक्ष में कोई अधिकार, हक और हित प्रदान या सृजित नहीं करता है, और न ही उसके आधार पर दूसरे अपीलकर्ता के पक्ष में पहले अपीलकर्ता द्वारा किया गया पट्टा दूसरे अपीलकर्ता को कोई अधिकार प्रदान करता है, जिससे कि वह पहले प्रतिवादी/डिक्री-धारक के पक्ष में ई.पी. अनुसूची संपत्ति के कब्जे के लिए डिक्री के निष्पादन पर आपत्ति कर सके या कब्जे में बाधा डाल सके।”
निचली अदालत के आदेश में हस्तक्षेप का कोई कारण न पाते हुए, हाईकोर्ट ने अपील खारिज कर दी और डिक्री-धारक के संपत्ति पर कब्जा करने के अधिकार की पुष्टि की।