सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि एक न्यायिक मजिस्ट्रेट को आपराधिक जांच के उद्देश्य से किसी भी व्यक्ति को आवाज का नमूना (Voice Sample) देने का आदेश देने का अधिकार है, भले ही पुरानी दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) में इसके लिए कोई स्पष्ट प्रावधान न हो। मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने एक हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसने आवाज का नमूना लेने के मजिस्ट्रेट के निर्देश को खारिज कर दिया था। कोर्ट ने कहा कि यह मामला रितेश सिन्हा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में दी गई बाध्यकारी नजीर से पूरी तरह कवर होता है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 16 फरवरी, 2021 को एक 25 वर्षीय विवाहित महिला की मृत्यु के बाद शुरू हुई जांच से संबंधित है। महिला की मृत्यु के बाद उसके ससुराल वालों पर उत्पीड़न और प्रताड़ना के आरोप लगे थे। वहीं, एक जवाबी आरोप में, मृतक के पति के चचेरे भाई ने मृतक के माता-पिता पर नकदी और आभूषणों के गबन का आरोप लगाते हुए पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी।

जांच के दौरान, जांच अधिकारी (I.O.) को पता चला कि इस मामले में दूसरे प्रतिवादी, जो कथित तौर पर मृतक के पिता के एजेंट के रूप में काम कर रहा था, ने एक गवाह को धमकी दी थी। उस गवाह ने दावा किया था कि उसे दूसरे प्रतिवादी के माध्यम से मृतक के पिता द्वारा की गई जबरन वसूली की मांग की जानकारी थी। इसके बाद, जांच अधिकारी ने दूसरे प्रतिवादी के आवाज के नमूने की जांच की मांग की, ताकि उसकी तुलना रिकॉर्ड किए गए सबूतों से की जा सके। संबंधित मजिस्ट्रेट की अदालत में एक याचिका दायर की गई, जिसे स्वीकार कर लिया गया और आवाज का नमूना एकत्र करने का निर्देश दिया गया।
दूसरे प्रतिवादी ने इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने यह तर्क देते हुए मजिस्ट्रेट के आदेश को रद्द कर दिया कि कानून का एक समान प्रश्न सुप्रीम कोर्ट की एक बड़ी पीठ को भेजा गया था।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दलीलें
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष, दूसरे प्रतिवादी के वकील श्री रंजन मुखर्जी ने तर्क दिया कि मजिस्ट्रेट का आदेश उस समय पारित किया गया था जब Cr.P.C. लागू थी, जिसमें मजिस्ट्रेट को आवाज का नमूना देने का निर्देश देने का अधिकार देने वाला कोई प्रावधान नहीं था। उन्होंने इसकी तुलना नई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 से की, जिसकी धारा 349 में यह शक्ति स्पष्ट रूप से दी गई है। मुख्य मुद्दा यह उठाया गया था कि क्या किसी गवाह को आवाज का नमूना देने के लिए मजबूर करना आत्म-अभिशंसन (self-incrimination) के खिलाफ संविधान के अनुच्छेद 20(3) के तहत दिए गए अधिकार का उल्लंघन कर सकता है, खासकर यदि तुलना के परिणामस्वरूप गवाह को आरोपी बना दिया जाए।
वहीं, अपीलकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री दामा शेषाद्री नायडू ने बताया कि जिस बड़ी पीठ के संदर्भ पर हाईकोर्ट ने भरोसा किया था, वह मामला डिफ़ॉल्ट के कारण बंद कर दिया गया था।
न्यायालय का विश्लेषण और पूर्व-निर्णयों पर भरोसा
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने हाईकोर्ट के फैसले पर अपनी désapprobation व्यक्त करते हुए कहा, “सुप्रीम कोर्ट की एक बाध्यकारी नजीर द्वारा कवर किए गए एक पूरी तरह से अकादमिक प्रश्न को प्रतिवादी द्वारा अनावश्यक रूप से उठाया गया और हाईकोर्ट द्वारा गलत तरीके से स्वीकार किया गया। हाईकोर्ट ने इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट की बाध्यकारी नजीर का पालन करने से भी इनकार कर दिया कि एक संदर्भ एक बड़ी पीठ को दिया गया है।”
कोर्ट ने पाया कि यह मुद्दा रितेश सिन्हा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2019) में तीन-न्यायाधीशों की पीठ के फैसले से सीधे तौर पर सुलझाया गया था। उस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि Cr.P.C. में स्पष्ट प्रावधान न होने के बावजूद, एक न्यायिक मजिस्ट्रेट को जांच के लिए किसी व्यक्ति को अपनी आवाज का नमूना देने का आदेश देने की शक्ति प्रदान की जानी चाहिए। पीठ ने यह भी नोट किया कि रितेश सिन्हा फैसले में जानबूझकर “व्यक्ति” शब्द का इस्तेमाल किया गया था, न कि केवल “अभियुक्त”, क्योंकि आत्म-अभिशंसन के खिलाफ नियम किसी भी व्यक्ति पर लागू होता है, चाहे वह अभियुक्त हो या गवाह।
फैसले में बॉम्बे राज्य बनाम काठी कालू ओघड़ (1961) के पुराने मामले में निर्धारित सिद्धांतों पर भी भरोसा किया गया, जिसमें लिखावट, हस्ताक्षर या उंगलियों के निशान के नमूने प्रदान करने के संदर्भ में आत्म-अभिशंसन की दलील पर विचार किया गया था। कोर्ट ने उस फैसले का एक अंश उद्धृत किया:
“(12) किसी अभियुक्त व्यक्ति द्वारा दी गई गवाही को आत्म-अभिशंसनात्मक तभी कहा जा सकता है, जब वह अपने आप में अभियुक्त को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति रखती हो… लिखावट या हस्ताक्षर या उंगलियों के निशान के नमूने अपने आप में कोई गवाही नहीं हैं, क्योंकि वे पूरी तरह से हानिरहित हैं… वे केवल तुलना के लिए सामग्री हैं ताकि अदालत को यह आश्वासन मिल सके कि अन्य सबूतों पर आधारित उसका निष्कर्ष विश्वसनीय है। वे न तो मौखिक और न ही दस्तावेजी सबूत हैं, बल्कि भौतिक साक्ष्य की तीसरी श्रेणी से संबंधित हैं जो ‘गवाही’ की सीमा से बाहर है।”
इस तर्क को लागू करते हुए, पीठ ने माना कि आवाज का नमूना प्रदान करना लिखावट या फिंगरप्रिंट के नमूने देने के समान है। केवल नमूना प्रदान करने का कार्य व्यक्ति को दोषी नहीं बनाता है। यह तभी दोषारोपक हो सकता है जब जांच के दौरान खोजी गई अन्य सामग्री से नमूने की तुलना की जाए, और यह प्रक्रिया अनुच्छेद 20(3) द्वारा निषिद्ध “गवाही की बाध्यता” (testimonial compulsion) के बराबर नहीं है।
अंतिम निर्णय
हाईकोर्ट के आदेश को बनाए रखने का कोई कारण न पाते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने अपील की अनुमति दी। पीठ ने हाईकोर्ट के आदेश को पलट दिया और मजिस्ट्रेट के मूल आदेश को बहाल कर दिया। दूसरे प्रतिवादी को मजिस्ट्रेट के आदेश के अनुसार कार्य करने और चल रही जांच के लिए आवाज का नमूना प्रदान करने का निर्देश दिया गया है।