सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को राजस्थान हाईकोर्ट के उन आदेशों को रद्द कर दिया, जिनके तहत एक आपराधिक मामले की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को सौंपी गई थी। कोर्ट ने फैसला सुनाया कि हाईकोर्ट को आपराधिक मामलों में अपने ही फैसले को वापस लेने या उसकी समीक्षा करने का कोई अधिकार नहीं है, खासकर जब इसे एक अनजाने में हुई गलती को सुधारने की आड़ में किया जाए।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने राजस्थान सरकार द्वारा दायर एक अपील को स्वीकार करते-घोषणा की कि एक बार जब जांच ट्रांसफर करने की याचिका का निपटारा कर दिया गया हो, तो हाईकोर्ट उसी राहत के लिए बाद में दायर किसी भी आवेदन पर विचार नहीं कर सकता। कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 403 (दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 362) के तहत केवल लिपिकीय त्रुटियों में सुधार की अनुमति है।
इस फैसले के साथ, सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान हाईकोर्ट के 24 जनवरी, 2025 के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसके द्वारा एक पुराने आदेश को वापस लिया गया था, और 4 फरवरी, 2025 के उस आदेश को भी रद्द कर दिया, जिसके तहत दो एफआईआर की जांच सीबीआई को ट्रांसफर कर दी गई थी।

मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला राजस्थान के भीलवाड़ा में ग्रेनाइट खनन व्यवसायी, परमेश्वर रामलाल जोशी द्वारा दर्ज कराई गई एक शिकायत से शुरू हुआ। जोशी ने आरोप लगाया कि खनन पट्टों से संबंधित एक व्यापारिक सौदा विफल होने के बाद, राज्य सरकार के तत्कालीन राजस्व मंत्री, श्री रामलाल जाट ने उन्हें और उनके परिवार को धमकी दी। इस शिकायत पर एफआईआर संख्या 211/2023 दर्ज की गई, जिसमें धमकी देने, खनिज और उपकरणों की चोरी करने और उनके व्यवसाय में हस्तक्षेप करने जैसे गंभीर आरोप थे। यह भी आरोप लगाया गया कि मंत्री ने दावा किया था कि पुलिस महानिदेशक और पुलिस महानिरीक्षक उनके “इशारे पर काम करते हैं।”
पुलिस ने इस एफआईआर में एक नकारात्मक रिपोर्ट (FR) दाखिल की, जिसमें कहा गया कि यह विवाद दीवानी प्रकृति का है। जोशी ने इस रिपोर्ट के खिलाफ एक प्रोटेस्ट पिटीशन दायर की। इसके बाद, उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत दो और आवेदन दायर किए, जिसके परिणामस्वरूप एफआईआर संख्या 202/2024 और 234/2024 दर्ज की गईं।
स्थानीय पुलिस की जांच से असंतुष्ट होकर, जोशी ने पहले राजस्थान हाईकोर्ट में एक आपराधिक रिट याचिका (संख्या 2244/2024) दायर की, जिसमें दोनों नई एफआईआर की जांच सीबीआई को सौंपने की मांग की गई। हालांकि, 23 अक्टूबर, 2024 को, याचिकाकर्ता के वकील ने याचिका वापस लेने का अनुरोध किया और इसे “वापस लिया हुआ मानकर खारिज” कर दिया गया।
इसके तुरंत बाद, जोशी ने लगभग उन्हीं मांगों के साथ हाईकोर्ट के समक्ष एक और याचिका (संख्या 287/2025) दायर की। 16 जनवरी, 2025 को, हाईकोर्ट ने इस याचिका का निपटारा करते हुए जोशी को पुलिस अधीक्षक के समक्ष एक अभ्यावेदन प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने सीबीआई जांच की प्रार्थना स्वीकार नहीं की।
कुछ दिनों बाद, जोशी ने 16 जनवरी के आदेश में संशोधन के लिए एक विविध आवेदन दायर किया, जिसमें तर्क दिया गया कि “यदि मांगी गई राहत नहीं दी गई तो याचिका दायर करने का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।”
24 जनवरी, 2025 को, एकल न्यायाधीश ने 16 जनवरी के आदेश को यह कहते हुए वापस ले लिया कि, “16.01.2025 को भारी काम के बोझ के कारण, अनजाने में एक लिपिकीय त्रुटि हुई।” इसके बाद, 4 फरवरी, 2025 को, हाईकोर्ट ने मुख्य याचिका को स्वीकार कर लिया और जांच सीबीआई को सौंप दी।
सुप्रीम कोर्ट में दलीलें
राजस्थान सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट के आदेश “पूरी तरह से अवैध और क्षेत्राधिकार के बिना” थे। उन्होंने दलील दी कि हाईकोर्ट ने प्रभावी रूप से अपने ही आदेश की समीक्षा की, जिसकी आपराधिक कानून में अनुमति नहीं है।
वहीं, शिकायतकर्ता का प्रतिनिधित्व करते हुए, वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ दवे ने हाईकोर्ट के फैसले का समर्थन किया। उन्होंने तर्क दिया कि जांच एक पूर्व मंत्री और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों द्वारा अनुचित रूप से प्रभावित की जा रही थी, जिससे शिकायतकर्ता को न्याय के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की कार्रवाइयों को कानूनी रूप से अस्थिर पाया। पीठ ने कहा कि जब पहली रिट याचिका बिना किसी स्वतंत्रता के वापस ले ली गई थी, तो उसी राहत के लिए बाद की याचिका पर विचार नहीं किया जा सकता था। कोर्ट ने टिप्पणी की, “यह प्रयास याचिका का लेबल बदलने के अलावा और कुछ नहीं था, जबकि सार वही था।”
फैसले का मुख्य बिंदु आपराधिक मामलों में हाईकोर्ट की समीक्षा शक्तियों की कमी थी। कोर्ट ने कहा, “कानून इस अदालत के कई फैसलों से अच्छी तरह से स्थापित है कि एक आपराधिक अदालत के पास अपने फैसले को वापस लेने या समीक्षा करने की कोई शक्ति नहीं है। एकमात्र स्वीकार्य कार्रवाई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 403 [दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 362] के आधार पर लिपिकीय त्रुटियों को सुधारना है।”
पीठ ने सिमरीखिया बनाम डॉली मुखर्जी और छबि मुखर्जी व अन्य मामले में अपने पहले के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें यह माना गया था, “धारा 362 के तहत समीक्षा पर रोक को दरकिनार करने के लिए हाईकोर्ट के अंतर्निहित क्षेत्राधिकार का उपयोग नहीं किया जा सकता… अदालत अपनी अंतर्निहित शक्तियों के तहत अपने ही फैसले की समीक्षा करने के लिए सशक्त नहीं है।”
सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि हाईकोर्ट का 16 जनवरी के आदेश को वापस लेने का तर्क—कि एक “लिपिकीय त्रुटि हुई थी”—”रिकॉर्ड के आधार पर गलत” और “तथ्यों से परे” था।
अंतिम फैसला सुनाते हुए, पीठ ने आदेश दिया, “परिणामस्वरूप, 24 जनवरी, 2025 और 4 फरवरी, 2025 के विवादित आदेश जांच में खरे नहीं उतरते हैं और उन्हें रद्द किया जाता है।”
हालांकि, “आरोपों की गंभीरता को देखते हुए,” कोर्ट ने शिकायतकर्ता परमेश्वर रामलाल जोशी को हाईकोर्ट के पहले के आदेशों को, यदि वे चाहें तो, उचित कानूनी उपायों के माध्यम से चुनौती देने की स्वतंत्रता प्रदान की।