बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने जलगांव ज़िले के एक मजिस्ट्रेट द्वारा 20 वर्षीय युवक के खिलाफ जारी नजरबंदी आदेश को अवैध और “शक्ति का रंगीन दुरुपयोग” (colourable exercise of power) करार देते हुए रद्द कर दिया। अदालत ने महाराष्ट्र सरकार को आदेश दिया कि युवक, दिक्षांत सापकाले, को 2 लाख रुपये मुआवज़ा दिया जाए। यह राशि उस मजिस्ट्रेट की सैलरी से वसूली जाएगी जिसने आदेश पारित किया था।
न्यायमूर्ति विभा कंकनवाड़ी और न्यायमूर्ति हितेन वेनेगवकर की खंडपीठ ने 1 अक्टूबर के आदेश (जिसकी प्रति रविवार को उपलब्ध हुई) में कहा कि इस नजरबंदी आदेश से याची को अवैध रूप से हिरासत में रखा गया, जिससे उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ।
पीठ ने कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा:

“पूरा घटनाक्रम कार्यपालिका की मनमानी का उदाहरण है। नजरबंदी प्राधिकरण ने कार्यवाही शुरू करते समय घोर असंवेदनशीलता और लापरवाही दिखाई।”
याचिका के अनुसार, नजरबंदी आदेश जुलाई 2024 में पारित किया गया था लेकिन जब सापकाले पहले से न्यायिक हिरासत में थे, तब इसे उन पर लागू नहीं किया गया। आदेश उन्हें मई 2025 में तब दिया गया जब वे जमानत पर बाहर आए। जैसे ही वे रिहा हुए, उसी आदेश के आधार पर फिर से गिरफ्तार कर लिया गया।
हाईकोर्ट ने माना कि आदेश को महीनों तक “ठंडे बस्ते” में रखकर केवल रिहाई के समय लागू करना न केवल अनुचित है बल्कि रोकथाम नजरबंदी की शक्तियों का दुरुपयोग है।
अदालत ने कहा कि रोकथाम नजरबंदी (preventive detention) एक अत्यंत अपवादात्मक कदम है जिसे केवल उन अपराधियों पर लागू किया जा सकता है जो वास्तव में सार्वजनिक व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा हों। मात्र दो लंबित आपराधिक मामलों के आधार पर ऐसा आदेश पारित करना कानून का दुरुपयोग है।
पीठ ने टिप्पणी की:
“यह मामला न केवल अवैध बल्कि असंवैधानिक नजरबंदी का है। ऐसे मामलों में भारी क्षतिपूर्ति आवश्यक है ताकि अधिकारियों को सबक मिले।”
कोर्ट ने यह भी पाया कि नजरबंदी से संबंधित दस्तावेज़ अंग्रेज़ी में दिए गए थे, जबकि सापकाले केवल मराठी समझते हैं। यह भी आदेश को अवैध ठहराने का एक गंभीर आधार बना।
हाईकोर्ट ने नजरबंदी आदेश को पूरी तरह रद्द करते हुए महाराष्ट्र सरकार को निर्देश दिया कि सापकाले को 2 लाख रुपये का मुआवज़ा दिया जाए और यह राशि संबंधित मजिस्ट्रेट की सैलरी से वसूली जाए।