एनआई एक्ट 138 | कंपनी निदेशकों के खिलाफ चेक बाउंस की कार्यवाही को रोक नहीं सकती दिवाला प्रक्रिया: बॉम्बे हाईकोर्ट

बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि किसी कंपनी के खिलाफ दिवाला और दिवालियापन संहिता, 2016 (आईबीसी) के तहत दिवाला कार्यवाही शुरू हो जाने के बाद भी, उसके निदेशकों के खिलाफ परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (एनआई एक्ट) की धारा 138 के तहत चेक अनादरण (चेक बाउंस) के लिए आपराधिक कार्यवाही जारी रह सकती है। यह नियम तब भी लागू होगा, भले ही दिवाला प्रक्रिया चेक बाउंस होने से पहले शुरू की गई हो।

न्यायमूर्ति एम.एम. नेरलीकर द्वारा 1 अक्टूबर, 2025 को सुनाए गए फैसले में, अदालत ने निचली अदालत के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें मेसर्स आनंद डिस्टिलरीज के निदेशकों को चेक बाउंस मामले से आरोपमुक्त कर दिया गया था। हाईकोर्ट ने माना कि आईबीसी की धारा 14 के तहत ‘अधिस्थगन’ (moratorium) केवल कॉर्पोरेट देनदार यानी कंपनी को सुरक्षा प्रदान करता है, लेकिन यह कंपनी के मामलों के लिए जिम्मेदार प्राकृतिक व्यक्तियों (निदेशकों) के व्यक्तिगत दंडात्मक दायित्व पर लागू नहीं होता।

मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता, ऑर्थो रिलीफ हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर ने 15 अक्टूबर, 2015 को मेसर्स आनंद डिस्टिलरीज को 15,00,000 रुपये का एक अल्पकालिक ऋण दिया था। सुरक्षा के तौर पर, कंपनी के निदेशक अभयकुमार आनंदकुमार भंभोरे द्वारा हस्ताक्षरित एक पोस्ट-डेटेड चेक जारी किया गया था।

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फरवरी 2018 में, पंजाब नेशनल बैंक ने कंपनी के खिलाफ आईबीसी के तहत दिवाला प्रक्रिया शुरू की। राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) ने 14 फरवरी, 2018 को याचिका स्वीकार करते हुए एक अधिस्थगन लागू कर दिया और एक अंतरिम समाधान पेशेवर (आईआरपी) नियुक्त किया। याचिकाकर्ता ने आईआरपी के समक्ष अपना दावा पेश किया।

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याचिकाकर्ता के अनुसार, इसके बाद कंपनी के निदेशकों, अभयकुमार आनंदकुमार भंभोरे और आनंदकुमार गुलाबचंदजी भंभोरे ने उन्हें आश्वासन दिया और चेक को भुनाने के लिए कहा। जब चेक बैंक में प्रस्तुत किया गया, तो यह 14 दिसंबर, 2018 को “अपर्याप्त धनराशि” की टिप्पणी के साथ अनादरित हो गया।

इसके बाद, याचिकाकर्ता ने 5 जनवरी, 2019 को एक कानूनी नोटिस भेजा और फिर एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत एक आपराधिक शिकायत दर्ज की। हालांकि, निचली अदालत ने निदेशकों द्वारा दायर एक आवेदन को स्वीकार करते हुए उन्हें 31 जनवरी, 2025 को लंबित दिवाला कार्यवाही का हवाला देते हुए आरोपमुक्त कर दिया था। इसी आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी।

पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता एस.एस. देवानी ने तर्क दिया कि एनआई एक्ट के तहत कार्यवाही दंडात्मक प्रकृति की है और यह आईबीसी के तहत वसूली की कार्यवाही से अलग है। उन्होंने कहा कि आईबीसी के तहत एक समाधान योजना को मंजूरी मिलने से निदेशक अपने दंडात्मक दायित्व से मुक्त नहीं हो जाते हैं।

प्रतिवादियों (कंपनी और उसके निदेशकों) की ओर से अधिवक्ता एस.डी. खाती ने तर्क दिया कि मामले में समय-सीमा महत्वपूर्ण थी। उन्होंने कहा कि आईबीसी कार्यवाही और अधिस्थगन 14 फरवरी, 2018 को शुरू हो गए थे, जबकि धारा 138 की शिकायत का कारण (चेक अनादरण) 14 दिसंबर, 2018 को उत्पन्न हुआ। उनका तर्क था कि आईबीसी की धारा 14 अधिस्थगन घोषित होने के बाद कॉर्पोरेट देनदार के खिलाफ किसी भी कानूनी कार्यवाही पर रोक लगाती है।

न्यायालय का विश्लेषण और निर्णय

हाईकोर्ट ने मामले में मुख्य कानूनी प्रश्न यह तय किया: “क्या आईबी कोड के तहत कार्यवाही की पूर्व शुरुआत, एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत याचिकाकर्ता के दावे को विफल कर देगी?”

पी. मोहनराज बनाम शाह ब्रदर्स इस्पात प्राइवेट लिमिटेड और अजय कुमार राधेश्याम गोयनका बनाम टूरिज्म फाइनेंस कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड सहित सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों की जांच करने के बाद, न्यायमूर्ति नेरलीकर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस मुद्दे पर कानून सुस्थापित है।

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अदालत ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित सिद्धांतों को दोहराया:

  • आईबीसी की धारा 14 के तहत अधिस्थगन केवल कॉर्पोरेट देनदार पर लागू होता है, और “धारा 141 में उल्लिखित प्राकृतिक व्यक्ति परक्राम्य लिखत अधिनियम के अध्याय XVII के तहत वैधानिक रूप से उत्तरदायी बने रहते हैं।”
  • धारा 138 के तहत कार्यवाही वसूली की कार्यवाही नहीं है, बल्कि यह दंडात्मक प्रकृति की है, जिसका उद्देश्य वाणिज्यिक लेनदेन की अखंडता को बनाए रखना है।
  • निदेशकों का व्यक्तिगत दंडात्मक दायित्व कॉर्पोरेट देनदार पर लागू किसी भी अधिस्थगन के बावजूद जारी रहता है।
  • आईबीसी और एनआई एक्ट अलग-अलग उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं और एक-दूसरे के साथ टकराव में नहीं हैं।
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फैसले में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कार्यवाही शुरू करने का समय निदेशकों के दायित्व को नहीं बदलता है। अदालत ने टिप्पणी की, “उपरोक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कार्यवाही आईबी कोड की कार्यवाही शुरू होने से पहले या उसके बाद शुरू की गई है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि प्राकृतिक व्यक्ति एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत अपने व्यक्तिगत दायित्व से नहीं बच सकते।”

अदालत ने आगे स्पष्ट किया कि आपराधिक कार्यवाही उन कार्यवाहियों की श्रेणी में नहीं आती है जिन्हें आईबीसी की धारा 14 के तहत स्थगित रखा जाना है। हाईकोर्ट ने माना कि निचली अदालत ने “आरोपी संख्या 2 और 3 को आरोपमुक्त करके एक बड़ी त्रुटि की थी।”

परिणामस्वरूप, हाईकोर्ट ने रिट याचिका को स्वीकार करते हुए निचली अदालत के आदेशों को रद्द कर दिया। अब निदेशकों के खिलाफ आपराधिक शिकायत पर कार्यवाही आगे बढ़ेगी। प्रतिवादियों के वकील द्वारा फैसले पर रोक लगाने के अनुरोध को खारिज कर दिया गया।

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