बॉम्बे हाईकोर्ट की जस्टिस भारती डांगरे ने कहा है कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (आईटी एक्ट), 2000 लागू होने के लगभग 25 साल बाद भी देश की अदालतें और जांच एजेंसियां आपराधिक मुकदमों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों को सही ढंग से समझने और अपनाने में संघर्ष कर रही हैं।
गोवा राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण और गोवा हाईकोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा पणजी के पास आयोजित फॉरेंसिक साक्ष्यों पर कार्यशाला के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए जस्टिस डांगरे ने कहा, “जब हम साक्ष्य अधिनियम के तहत प्राथमिक और द्वितीयक साक्ष्य की पारंपरिक अवधारणाओं को समझ ही रहे थे, तभी आईटी एक्ट ने नई जटिलताएं सामने ला दीं।”
जस्टिस डांगरे ने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड ने न्याय प्रणाली को बदल दिया है, लेकिन अब भी इसे सही तरह से परखना कठिन है। उन्होंने साक्ष्य अधिनियम की धारा 65बी का उल्लेख किया, जिसके तहत किसी इलेक्ट्रॉनिक डेटा को प्रमाणित करने के लिए संबंधित डिवाइस के जिम्मेदार व्यक्ति का प्रमाणपत्र आवश्यक है।
उन्होंने कहा, “यदि आप डिवाइस को सीधे अदालत में पेश करते हैं तो यह आसान है। लेकिन जब मोबाइल या अन्य डिवाइस से डेटा को किसी पेन ड्राइव या चिप में ट्रांसफर किया जाता है तो इसके लिए 65बी प्रमाणपत्र जरूरी होता है।”

उन्होंने व्हाट्सऐप चैट से जुड़े मामलों का उदाहरण देते हुए कहा कि खासकर वैवाहिक विवादों और पॉक्सो (POCSO) अधिनियम के मामलों में बड़ी मात्रा में चैट रिकॉर्ड पेश किए जाते हैं, लेकिन इनकी फॉरेंसिक जांच की रिपोर्ट अदालत में कभी नहीं लाई जाती।
जस्टिस डांगरे ने कहा कि किसी मुकदमे की सफलता साक्ष्यों की “संख्या” पर नहीं बल्कि “गुणवत्ता” पर निर्भर करती है। उन्होंने कहा, “ट्रायल कोर्ट में दर्ज साक्ष्य वही रहते हैं, चाहे मामला हाईकोर्ट जाए या सुप्रीम कोर्ट। निचली अदालत में दर्ज बयान ही आगे निर्णायक साबित होते हैं।”
जस्टिस डांगरे ने साइबर अपराधों को लेकर भी चेतावनी दी और कहा कि अपराधी अक्सर कानून प्रवर्तन एजेंसियों से एक कदम आगे रहते हैं। उन्होंने ओटीटी सीरीज जामताड़ा और डार्कनेट पर हो रहे नशे के व्यापार का जिक्र करते हुए कहा, “डार्कनेट के जरिए भारी पैमाने पर नशीली दवाओं की खरीद-फरोख्त हो रही है। आंकड़े बताते हैं कि केवल पांच प्रतिशत साइबर अपराधों का ही वास्तव में पता लगाया जा पाता है और अपराधियों को सजा मिलती है।”
उन्होंने अभियोजकों, बचाव पक्ष के वकीलों, ट्रायल कोर्ट के जजों और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों से आग्रह किया कि वे इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों के कानूनी और व्यावहारिक दोनों पहलुओं पर गहनता से ध्यान दें। उन्होंने कहा, “25 साल बाद भी यह क्षेत्र बारीकियों से भरा हुआ है। इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों पर भरोसा करना होगा और उन्हें सावधानी से परखना होगा।”