सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू अविभाजित परिवार (HUF) कानून पर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा है कि बेटी की शादी में हुए कर्ज को चुकाने के लिए कर्ता द्वारा संयुक्त परिवार की संपत्ति की बिक्री एक वैध ‘कानूनी आवश्यकता’ मानी जाएगी। जस्टिस संदीप मेहता और जस्टिस जयमाल्य बागची की बेंच ने कर्नाटक हाईकोर्ट के एक फैसले को रद्द कर दिया और संपत्ति के हस्तांतरण को बरकरार रखते हुए एक सहदायिक (coparcener) द्वारा दायर बंटवारे के मुकदमे को खारिज कर दिया।
सर्वोच्च अदालत एक बेटे द्वारा अपने पिता के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें पिता द्वारा पैतृक भूमि की बिक्री को चुनौती दी गई थी।
मामले की पृष्ठभूमि

यह विवाद कर्नाटक के गुलबर्गा के बाबलाद गांव में स्थित 9 एकड़ 1 गुंटा जमीन से संबंधित था, जो एक हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति थी। वादी काशीराया ने अपने पिता और HUF के कर्ता शरणप्पा (पहले प्रतिवादी), अपने भाइयों (प्रतिवादी 2, 3, और 4), और जमीन के खरीदार दस्तगीरसाब (5वें प्रतिवादी) के खिलाफ मुकदमा दायर किया था।
वादी का आरोप था कि उसके पिता, जो कि कर्ता थे, “शराब और बुरी आदतों के आदी” थे और उन्होंने 26 जुलाई, 1995 को बिना किसी पारिवारिक आवश्यकता के मामूली कीमत पर विवादित भूमि बेच दी थी। उसने दलील दी कि उसे दिसंबर 1999 तक इस बिक्री के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, क्योंकि संपत्ति का कब्जा हस्तांतरित नहीं किया गया था। उसने बिक्री विलेख (sale deed) को शून्य घोषित करने और संपत्ति में अपने हिस्से के बंटवारे की मांग की।
इसके जवाब में, खरीदार (5वें प्रतिवादी) ने यह कहते हुए मुकदमे का विरोध किया कि वह एक वास्तविक खरीदार था जिसने उचित मूल्य चुकाया था। उसका मुख्य बचाव यह था कि बिक्री एक “कानूनी आवश्यकता के कारण की गई थी, जो कर्ता की बेटी काशीबाई के विवाह के कारण उत्पन्न हुई थी।” उसने यह भी कहा कि जमीन पर उसका कब्जा था, जिसके प्रमाण के रूप में म्यूटेशन प्रमाण पत्र और भू-राजस्व रिकॉर्ड मौजूद थे।
निचली अदालतों के फैसले
गुलबर्गा के प्रधान दीवानी न्यायाधीश (सीनियर डिवीजन) की अदालत ने यह पाया कि कर्ता ने वास्तव में अपनी बेटी काशीबाई के विवाह के खर्चों को पूरा करने के लिए जमीन बेची थी, जो एक कानूनी आवश्यकता की श्रेणी में आता है। इसलिए, ट्रायल कोर्ट ने मुकदमा खारिज कर दिया था।
हालांकि, कर्नाटक हाईकोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया। हाईकोर्ट ने यह तर्क दिया कि चूंकि शादी बिक्री से कुछ साल पहले (1991 में) हो चुकी थी, इसलिए यह बिक्री का एक मजबूत आधार नहीं हो सकता। हाईकोर्ट ने वादी के पक्ष में फैसला सुनाते हुए बंटवारे का आदेश दिया।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने, जस्टिस जयमाल्य बागची द्वारा लिखे गए फैसले में, मामले का केंद्रीय मुद्दा यह पहचाना: “क्या विवादित भूमि 5वें प्रतिवादी को कानूनी आवश्यकता, यानी बेटी काशीबाई के विवाह के लिए बेची गई थी?”
अदालत ने हिंदू कानून के स्थापित सिद्धांतों को दोहराते हुए कहा कि एक कर्ता को कानूनी आवश्यकता के अस्तित्व पर निर्णय लेने का व्यापक विवेक होता है।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के तर्क में गंभीर खामियां पाईं। अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि ट्रायल कोर्ट में जिरह के दौरान, वादी ने खुद स्वीकार किया था कि उसके पिता ने उसे बताया था कि संपत्ति पारिवारिक जरूरतों को पूरा करने के लिए बेची गई थी। फैसले में कहा गया है, “हाईकोर्ट ने इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया।”
शादी और बिक्री के बीच समय के अंतर पर, सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की, “यह एक आम जानकारी है कि परिवार अपनी बेटियों की शादी के लिए भारी कर्ज उठाते हैं और ऐसे कर्ज का आने वाले वर्षों में परिवार की वित्तीय स्थिति पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।”
बेंच ने इस तथ्य में ठोस सबूत पाया कि बिक्री के लिए धन की रसीदों पर दो सहदायिकों, कर्ता की पत्नी और खुद बेटी काशीबाई ने हस्ताक्षर किए थे। अदालत ने निष्कर्ष निकाला, “ये परिस्थितियां दर्शाती हैं कि काशीबाई के विवाह के संबंध में सहदायिकों द्वारा वहन किए गए खर्चों ने परिवार पर वित्तीय तनाव पैदा किया, जिसके कारण विवादित भूमि की बिक्री हुई।”
अंत में, अदालत ने मुकदमा दायर करने में पांच साल की देरी के लिए वादी के आचरण पर भी सवाल उठाया, यह देखते हुए कि इससे उसकी नीयत पर “गंभीर संदेह” पैदा होता है।
अपने अंतिम निष्कर्ष में, बेंच ने कहा, “हमारी राय में, हाईकोर्ट ने यह मानने में गलती की कि 5वें प्रतिवादी के पक्ष में बिक्री कानूनी आवश्यकता के लिए नहीं थी और वह एक वास्तविक खरीदार नहीं था।”
सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया और ट्रायल कोर्ट के उस फैसले को बहाल कर दिया जिसमें मुकदमा खारिज किया गया था।