सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कई राज्यों से उनके एंटी-कन्वर्ज़न (धर्म परिवर्तन विरोधी) कानूनों की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर जवाब मांगा। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि ये कानून मनमाने हैं और व्यक्तियों के धर्म परिवर्तन करने तथा स्वतंत्र इच्छा से जीवन जीने के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।
मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति भूषण आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, झारखंड और कर्नाटक के फ्रीडम ऑफ रिलीजन कानूनों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। कोर्ट ने राज्यों को चार हफ्ते में जवाब दाखिल करने को कहा और छह हफ्ते बाद अगली सुनवाई तय की।
वरिष्ठ अधिवक्ता चंदर उदय सिंह, सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) की ओर से पेश होकर बोले कि कुछ राज्यों ने अपने कानून और भी कठोर बना दिए हैं। उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश ने 2024 में संशोधन कर अवैध धर्म परिवर्तन को लेकर न्यूनतम 20 साल की सज़ा (जो आजीवन कारावास तक बढ़ सकती है) का प्रावधान कर दिया।

सिंह ने आगे कहा कि इसमें ट्विन बेल कंडीशन (जमानत की दोहरी शर्तें) शामिल की गईं, तीसरे पक्ष को शिकायत दर्ज करने का अधिकार दिया गया और दंड बढ़ा दिए गए। उनके अनुसार, इन संशोधनों से तथाकथित सतर्कतावादी समूहों को बढ़ावा मिला है, जिससे अंतरधार्मिक दंपतियों और सामान्य चर्च सभाओं तक को परेशान किया जा रहा है।
अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर ने नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वीमेन की ओर से दलील दी कि ये कानून महिलाओं और अल्पसंख्यकों पर असमान रूप से असर डालते हैं, इसलिए इन्हें निलंबित किया जाना चाहिए।
याचिकाकर्ताओं ने यह भी याद दिलाया कि गुजरात और मध्य प्रदेश हाई कोर्ट पहले ही इन कानूनों के कुछ प्रावधानों पर रोक लगा चुके हैं। इन दोनों राज्यों ने अंतरिम आदेशों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है, और अब वही मामले भी इस बंच का हिस्सा हैं।
पीठ ने अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के.एम. नटराज, जो राज्यों की ओर से पेश हुए, को निर्देश दिया कि वे समय पर जवाब दाखिल करें। साथ ही, सुनवाई को व्यवस्थित करने के लिए अदालत ने अधिवक्ता सृष्टि अग्रिहोत्री और रुचिरा गोयल को क्रमशः याचिकाकर्ताओं और प्रतिवादियों की नोडल काउंसल नियुक्त किया।
इसके साथ ही, कोर्ट ने अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की उस जनहित याचिका को अलग कर दिया जिसमें पूरे देश के लिए धर्म परिवर्तन पर पाबंदी लगाने वाला कानून बनाने की मांग की गई थी। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि मौजूदा सुनवाई सिर्फ राज्यों के कानूनों तक सीमित है।
ये याचिकाएँ जनवरी 2020 से सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं जब तत्कालीन सीजेआई डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने पहली बार नोटिस जारी किया था। बाद में जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने छह हाई कोर्ट (गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश) में लंबित 21 याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरित करने की मांग की ताकि एक समान फैसला आ सके।
सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस और नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वीमेन समेत अन्य याचिकाकर्ताओं का कहना है कि ये कानून नाम मात्र के फ्रीडम ऑफ रिलीजन कानून हैं, वास्तव में ये दमनकारी हैं और धर्मनिरपेक्षता, गरिमा, बंधुत्व और निजता जैसे संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन करते हैं।
धर्म परिवर्तन का मुद्दा लंबे समय से राजनीतिक और सामाजिक रूप से संवेदनशील रहा है। राज्य सरकारें इन कानूनों को मजबूरन या धोखे से धर्मांतरण रोकने और कमजोर तबकों, खासकर महिलाओं व आर्थिक रूप से वंचितों की रक्षा के लिए आवश्यक बताती हैं। दूसरी ओर, आलोचकों का कहना है कि विवाह के जरिए धर्म परिवर्तन को अपराध ठहराना और व्यक्तियों पर सबूत का बोझ डालना संविधान के मूल अधिकारों के खिलाफ है और सतर्कतावादी हिंसा को प्रोत्साहित करता है।