वक्फ संशोधन अधिनियम, पर पूरी तरह रोक लगाने से सुप्रीम कोर्ट का इनकार, लेकिन सरकारी संपत्ति और वक्फ निर्माण से जुड़े प्रमुख प्रावधान निलंबित

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 15 सितंबर, 2025 को एक महत्वपूर्ण अंतरिम आदेश में, विवादास्पद वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 के संचालन पर पूरी तरह से रोक लगाने से इनकार कर दिया। हालांकि, चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बी.आर. गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने कई प्रमुख प्रावधानों के कार्यान्वयन को निलंबित कर दिया, जिसमें राजस्व अधिकारियों को वक्फ घोषित की गई कथित सरकारी संपत्तियों की स्थिति को बदलने की शक्ति देने वाले और वक्फ बनाने के लिए एक नई शर्त लगाने वाले प्रावधान शामिल हैं।

कोर्ट रिट याचिकाओं के एक समूह पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें संशोधन अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19, 21, 25, 26, 29, 30 और 300A का उल्लंघन करता है। पूर्ण रोक की याचिका को खारिज करते हुए, कोर्ट ने अंतिम सुनवाई लंबित रहने तक दोनों पक्षों के हितों में संतुलन साधने के लिए विशिष्ट निर्देश जारी किए।

चुनौती की पृष्ठभूमि

इन रिट याचिकाओं में 2025 के अधिनियम द्वारा एकीकृत वक्फ प्रबंधन, अधिकारिता, दक्षता और विकास अधिनियम, 1995 में किए गए कई संशोधनों को व्यापक रूप से चुनौती दी गई थी। मुख्य विवाद ‘वक्फ बाय यूजर’ (उपयोग द्वारा वक्फ) की अवधारणा को समाप्त करने, वक्फ संपत्तियों की घोषणा और पंजीकरण के लिए नए नियमों, केंद्रीय वक्फ परिषद और राज्य वक्फ बोर्डों की संरचना में बदलाव, और यह निर्धारित करने के लिए एक नए तंत्र के इर्द-गिर्द केंद्रित थे कि क्या कोई वक्फ संपत्ति वास्तव में सरकारी है।

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याचिकाकर्ताओं के तर्क

याचिकाकर्ताओं की ओर से बहस का नेतृत्व करते हुए, वरिष्ठ अधिवक्ता श्री कपिल सिब्बल ने तर्क दिया कि इस अधिनियम के पीछे “वास्तविक इरादा” वक्फ संपत्तियों की रक्षा करने की आड़ में “उन्हें छीनना या जब्त करना” है।

श्री सिब्बल, डॉ. राजीव धवन, डॉ. ए.एम. सिंघवी, श्री सी.यू. सिंह, और श्री हुजेफा अहमदी सहित याचिकाकर्ताओं के वकीलों द्वारा दिए गए प्रमुख तर्क थे:

  • ‘वक्फ बाय यूजर’ का उन्मूलन: ‘वक्फ बाय यूजर’ की अवधारणा को हटाना और वक्फ विलेख (deed) की नई अनिवार्य आवश्यकता को स्थापित इस्लामी कानून के विपरीत बताया गया, जो मौखिक दान को भी मान्यता देता है।
  • सरकारी संपत्ति का निर्धारण (धारा 3C): नई धारा 3C को “पूरी तरह से मनमाना” बताया गया। यह कलेक्टर के पद से ऊपर के एक नामित अधिकारी को यह निर्धारित करने की अनुमति देता है कि कोई संपत्ति सरकारी है या नहीं। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि जांच समाप्त होने से पहले ही, धारा का एक परंतुक (proviso) मनमाने ढंग से यह तय करता है कि “विचाराधीन संपत्ति वक्फ संपत्ति नहीं रह जाएगी।” उन्होंने कहा कि इससे वक्फ राजस्व रिकॉर्ड में एकतरफा बदलाव के बाद “बेसहारा होकर वक्फ न्यायाधिकरण के दरवाजे खटखटाने” के लिए मजबूर हो जाएगा।
  • परिषद और बोर्ड की संरचना (धारा 9 और 14): यह तर्क दिया गया कि संशोधित संरचना के कारण केंद्रीय वक्फ परिषद और राज्य बोर्ड दोनों में गैर-मुस्लिम सदस्यों का बहुमत हो सकता है, जिससे उन्हें “वक्फ के मामलों में हस्तक्षेप करने की अनुमति मिलेगी, जो सीधे तौर पर मुसलमानों के अपने धार्मिक मामलों का स्वतंत्र रूप से प्रबंधन करने के अधिकारों को प्रभावित करेगा।”
  • वक्फ का निर्माण (धारा 3(r)): किसी व्यक्ति को वक्फ बनाने के लिए यह “दिखाने या प्रदर्शित करने” की नई आवश्यकता कि वह “कम से कम पांच वर्षों से इस्लाम का पालन कर रहा है,” को “पूरी तरह से भेदभावपूर्ण और मनमाना” तथा अनुच्छेद 15 का उल्लंघन करने वाला बताया गया।
  • संरक्षित स्मारक (धारा 3D): संरक्षित स्मारकों पर वक्फ घोषणाओं को शून्य करने वाले प्रावधान को भेदभावपूर्ण कहा गया, क्योंकि अन्य धर्मों द्वारा उपयोग किए जाने वाले स्मारकों के लिए ऐसा कोई प्रतिबंध मौजूद नहीं है।
  • आदिवासी भूमि (धारा 3E): यह धारा, जो अनुसूचित जनजातियों की भूमि को वक्फ संपत्ति घोषित करने पर रोक लगाती है, को इस्लाम का पालन करने वाले आदिवासी सदस्यों की “धार्मिक स्वतंत्रता पर सीधा हमला” करार दिया गया।
  • अनिवार्य पंजीकरण (धारा 36): याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि अनिवार्य पंजीकरण और अपंजीकृत वक्फों के लिए कानूनी कार्यवाही पर रोक का संयुक्त प्रभाव एक “जटिल और विरोधाभासी स्थिति” पैदा करता है, जिससे वे उपायहीन हो जाते हैं।
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प्रतिवादियों की दलीलें

भारत संघ का प्रतिनिधित्व करते हुए, सॉलिसिटर जनरल श्री तुषार मेहता ने संशोधनों का बचाव करते हुए तर्क दिया कि उन्हें प्रणालीगत मुद्दों को हल करने और सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा के लिए अधिनियमित किया गया था। उन्होंने जोर देकर कहा कि कानून के पक्ष में “वैधता की एक मजबूत धारणा” होती है।

प्रतिवादियों के प्रमुख तर्क थे:

  • विधायी मंशा: संशोधन “बदलती सामाजिक परिस्थितियों के साथ तालमेल रखने और चुनौतियों से निपटने के लिए मौजूदा कानूनों को बनाने या संशोधित करने” के लिए आवश्यक थे।
  • ‘वक्फ बाय यूजर’ का दुरुपयोग: सॉलिसिटर जनरल ने तर्क दिया कि ‘वक्फ बाय यूजर’ की अवधारणा “सरकारी और निजी संपत्तियों पर अतिक्रमण के लिए एक सुरक्षित पनाहगाह” बन गई थी। उन्होंने आंध्र प्रदेश राज्य बनाम आंध्र प्रदेश वक्फ बोर्ड मामले का हवाला दिया, जहां 1,654 एकड़ सरकारी भूमि को वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया गया था। उन्होंने कहा कि इस अवधारणा का उन्मूलन भविष्यलक्षी है और इसका उद्देश्य ऐसे दुरुपयोग को रोकना है।
  • सरकारी संपत्ति (धारा 3C): श्री मेहता ने प्रस्तुत किया कि यह प्रावधान सरकार द्वारा ट्रस्ट में रखी गई सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा के लिए एक तंत्र है। उन्होंने कोर्ट को आश्वासन दिया कि स्वामित्व का अंतिम निर्धारण वक्फ न्यायाधिकरण और उच्च न्यायालयों द्वारा किया जाएगा, और केवल नामित अधिकारी की रिपोर्ट के आधार पर कब्जा नहीं छीना जा सकता है।
  • परिषद और बोर्ड की संरचना: उन्होंने तर्क दिया कि इन निकायों की भूमिका मुख्य रूप से सलाहकारी और धर्मनिरपेक्ष है, जो धार्मिक हस्तक्षेप के बजाय प्रशासन और वित्त से संबंधित है। उन्होंने यह भी कहा कि अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने संयुक्त संसदीय समिति (JPC) को आश्वासन दिया था कि मुस्लिम सदस्य बहुमत में रहेंगे।
  • संरक्षित स्मारक (धारा 3D): यह संशोधन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा संरक्षित स्मारकों के संरक्षण में आ रही कठिनाइयों के कारण प्रस्तावित किया गया था, जिन्हें वक्फ अधिकारियों द्वारा बदला जा रहा था। उन्होंने बताया कि धार्मिक अनुष्ठान पहले से ही प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 की धारा 5(6) के तहत संरक्षित हैं।
  • आदिवासी भूमि (धारा 3E): इस प्रावधान का बचाव अनुसूचित जनजातियों के संपत्ति अधिकारों की “संवैधानिक बाध्यता के तहत सुरक्षा” के लिए एक आवश्यक उपाय के रूप में किया गया, जिनकी सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान “उनकी भूमि से आंतरिक रूप से जुड़ी हुई है।”
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कोर्ट का विश्लेषण और अंतरिम आदेश

सुप्रीम कोर्ट ने अपने विश्लेषण की शुरुआत इस स्थापित कानूनी सिद्धांत को दोहराते हुए की कि अदालतों को “किसी अधिनियम के प्रावधानों पर रोक लगाने के रूप में अंतरिम राहत देने में बहुत धीमा” होना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि ऐसी राहत “दुर्लभ और असाधारण मामलों” के लिए आरक्षित है, जहां कोई कानून या तो विधायी क्षमता से परे हो, प्रथम दृष्टया असंवैधानिक हो, या स्पष्ट रूप से मनमाना हो।

1923 से वक्फ अधिनियमों के विधायी इतिहास की जांच करने के बाद, जिससे “कुप्रबंधन” और वक्फ का उपयोग “‘संपत्ति को बांधने के लिए एक चतुर उपकरण’ के रूप में करने की एक निरंतर समस्या का पता चला, कोर्ट ने चुनौतीपूर्ण प्रावधानों की प्रथम दृष्टया समीक्षा की।

कोर्ट के प्रथम दृष्टया निष्कर्षों के आधार पर निम्नलिखित निर्देश दिए गए:

  1. वक्फ बनाने की शर्त पर रोक: धारा 3(r) में यह प्रावधान कि वक्फ बनाने के लिए व्यक्ति को “कम से कम पांच साल से इस्लाम का पालन” करते हुए दिखाना होगा, तब तक के लिए निलंबित कर दिया गया है जब तक कि सरकार इसके निर्धारण के लिए नियम और एक तंत्र नहीं बना लेती।
  2. सरकारी संपत्ति संबंधी प्रावधानों पर रोक: कोर्ट ने धारा 3C(2) के उस परंतुक पर रोक लगा दी, जो जांच के दौरान किसी संपत्ति को गैर-वक्फ मानता था। इसने धारा 3C की उप-धाराओं (3) और (4) पर भी रोक लगा दी, जो एक नामित अधिकारी को राजस्व रिकॉर्ड में सुधार करने और वक्फ बोर्ड को ऐसा करने का निर्देश देने का अधिकार देती हैं। कोर्ट ने माना कि स्वामित्व का निर्धारण एक न्यायिक या अर्ध-न्यायिक कार्य है।
  3. बेदखली से संरक्षण: कोर्ट ने निर्देश दिया कि धारा 3C जांच के आधार पर किसी भी वक्फ को बेदखल नहीं किया जाएगा, न ही किसी रिकॉर्ड में बदलाव किया जाएगा, जब तक कि इस मामले का अंतिम निर्णय वक्फ न्यायाधिकरण द्वारा धारा 83 के तहत नहीं हो जाता। हालांकि, इसने यह भी आदेश दिया कि इस अवधि के दौरान ऐसी विवादित संपत्तियों में किसी तीसरे पक्ष के अधिकार नहीं बनाए जा सकते हैं।
  4. गैर-मुस्लिम सदस्यों की सीमा: सॉलिसिटर जनरल की दलील को स्वीकार करते हुए, कोर्ट ने निर्देश दिया कि केंद्रीय वक्फ परिषद में 22 में से 4 से अधिक गैर-मुस्लिम सदस्य नहीं होंगे और राज्य वक्फ बोर्डों में 11 में से 3 से अधिक गैर-मुस्लिम सदस्य नहीं होंगे
  5. सीईओ की नियुक्ति: प्रावधान पर रोक न लगाते हुए, कोर्ट ने निर्देश दिया कि “बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी… को मुस्लिम समुदाय में से नियुक्त करने का प्रयास किया जाना चाहिए।”
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कोर्ट ने ‘वक्फ बाय यूजर’ के भविष्यलक्षी उन्मूलन, आदिवासी भूमि को वक्फ घोषित करने पर रोक, वक्फ संपत्तियों पर परिसीमन अधिनियम, 1963 के लागू होने और संरक्षित स्मारकों से संबंधित प्रावधानों सहित अन्य चुनौतीपूर्ण प्रावधानों पर रोक लगाने का कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं पाया।

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उसकी टिप्पणियाँ अंतरिम राहत पर निर्णय लेने के उद्देश्य से प्रथम दृष्टया हैं और अधिनियम की संवैधानिक वैधता पर अंतिम सुनवाई को प्रभावित नहीं करेंगी।

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