जमानत अर्जियों पर 2 महीने में करें फैसला: देशभर के हाईकोर्ट को सुप्रीम कोर्ट का सख्त निर्देश

सुप्रीम कोर्ट ने 12 सितंबर, 2025 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए, जाली दस्तावेजों के आधार पर धोखाधड़ी से भूमि हस्तांतरण के आरोपी महाराष्ट्र के दो सेवानिवृत्त राजस्व अधिकारियों की अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए, जमानत याचिकाओं के निपटारे में हो रही देरी पर गंभीर चिंता व्यक्त की। कोर्ट ने देश के सभी हाईकोर्ट को यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्यकारी निर्देश जारी किए कि जमानत और अग्रिम जमानत की अर्जियों पर, प्राथमिकता के आधार पर, दो महीने के भीतर फैसला किया जाए।

यह मामला भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत धोखाधड़ी, जालसाजी और आपराधिक साजिश के आरोपों से संबंधित है, जो 1996 में हुए एक संपत्ति सौदे से जुड़ा है।

मामले की पृष्ठभूमि

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यह मामला 26 जनवरी, 2019 को श्री विकास नरसिंह वर्तक की शिकायत पर पालघर के अर्नाला सागरी पुलिस स्टेशन में दर्ज एफ.आई.आर. (संख्या 30/2019) से शुरू हुआ। शिकायतकर्ता का आरोप था कि अगाशी गांव में स्थित जमीन, जो उनके मृत पिता, उनके चाचाओं (वर्तक परिवार) और शाह परिवार के संयुक्त स्वामित्व में थी, को अवैध रूप से बेच दिया गया।

शिकायत के अनुसार, 13 मई, 1996 को नरसिंह गोविंद वर्तक (जिनकी मृत्यु 1978 में हो गई थी) और उनके भाइयों के नाम पर कथित तौर पर पावर ऑफ अटॉर्नी तैयार की गई। इसी तरह शाह परिवार के सदस्यों के नाम पर भी पावर ऑफ अटॉर्नी बनाई गई, जिनकी मृत्यु भी 1969 और 1990 के बीच हो चुकी थी। इन्हीं जाली दस्तावेजों के आधार पर, 18 मई, 1996 को श्री महेश यशवंत भोईर (आरोपी नंबर 1) के पक्ष में 8 लाख रुपये में एक बिक्री विलेख (सेल डीड) निष्पादित किया गया।

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सुप्रीम कोर्ट में अपीलकर्ता, श्री अन्ना वामन भालराव और एक अन्य अधिकारी, उस समय राजस्व विभाग में क्रमशः सर्कल ऑफिसर और तलाठी के पद पर कार्यरत थे। उन पर आरोप है कि उन्होंने जाली बिक्री विलेख के आधार पर नामांतरण प्रविष्टियों (म्यूटेशन एंट्री) को प्रमाणित किया, जिससे अवैध भूमि हस्तांतरण को सुगम बनाया गया। हालांकि, इन नामांतरण प्रविष्टियों को 30 सितंबर, 1998 को उप-विभागीय अधिकारी के एक आदेश द्वारा रद्द कर दिया गया था।

वसई के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश और बाद में बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा 4 जुलाई, 2025 को अग्रिम जमानत याचिकाएं खारिज किए जाने के बाद, अपीलकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ताओं के वरिष्ठ वकील ने तर्क दिया कि वे सेवानिवृत्त लोक सेवक हैं और उनका नाम मूल एफ.आई.आर. में नहीं था। यह दलील दी गई कि उन्होंने केवल अपनी आधिकारिक क्षमता में काम किया और एक पंजीकृत बिक्री विलेख के आधार पर नामांतरण को प्रमाणित किया, जो प्रथम दृष्टया वैध प्रतीत हो रहा था। उन्होंने जाली दस्तावेजों को बनाने में किसी भी भूमिका, धोखाधड़ी की जानकारी या किसी भी व्यक्तिगत लाभ से इनकार किया।

अपीलकर्ताओं के वकील ने कहा कि उनके कृत्य को अधिक से अधिक एक “प्रक्रियात्मक चूक” माना जा सकता है। उन्होंने एफ.आई.आर. दर्ज करने में हुई “20 से अधिक वर्षों की असाधारण देरी” पर जोर देते हुए कहा कि इससे निष्पक्ष जांच के उनके अधिकार पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

वहीं, राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के समक्ष तर्क दिया था कि अपीलकर्ताओं ने महाराष्ट्र भू-राजस्व संहिता के वैधानिक दायित्वों की अनदेखी की और धोखाधड़ी वाले लेनदेन को सुगम बनाया। अभियोजन पक्ष ने यह भी आरोप लगाया कि 2019 से अंतरिम संरक्षण का लाभ उठाने के बावजूद, अपीलकर्ताओं ने जांच में सहयोग नहीं किया।

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कोर्ट का विश्लेषण और जमानत अर्जी खारिज

सुप्रीम कोर्ट ने दलीलें सुनने के बाद हाईकोर्ट के फैसले में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं पाया। पीठ ने कहा कि बिक्री विलेख “प्रथम दृष्टया दूषित” था, क्योंकि इसे मृत व्यक्तियों के दस्तावेजों के आधार पर निष्पादित किया गया था।

कोर्ट ने माना कि अपीलकर्ताओं के कथित आचरण को “महज एक प्रक्रियात्मक चूक कहकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।” आपराधिक इरादे का सवाल मुकदमे का विषय है, लेकिन पीठ ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जांच की वैध आवश्यकताओं के बीच संतुलन बनाने पर जोर दिया।

एफ.आई.आर. दर्ज करने में हुई अत्यधिक देरी पर कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की: “हालांकि कार्यवाही शुरू करने में लंबी देरी हुई है, लेकिन आरोपों की गंभीरता, आधिकारिक पद के कथित दुरुपयोग और हाईकोर्ट के प्रथम दृष्टया निष्कर्ष कि हिरासत में पूछताछ आवश्यक है, को केवल देरी के आधार पर कम नहीं किया जा सकता।”

फैसले में आगे कहा गया कि दस्तावेजी सबूतों पर आधारित मामलों में भी, “लेन-देन की श्रृंखला का पता लगाने, संलिप्तता का पता लगाने और रिकॉर्ड के साथ छेड़छाड़ को रोकने के लिए हिरासत में पूछताछ आवश्यक हो सकती है।”

अपील खारिज करते हुए, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अपीलकर्ता नियमित जमानत के लिए आवेदन करने के लिए स्वतंत्र हैं, जिस पर इस फैसले की टिप्पणियों से प्रभावित हुए बिना, उसके अपने गुणों के आधार पर विचार किया जाना चाहिए।

जमानत मामलों के शीघ्र निपटान पर निर्देश

फैसले का एक बड़ा हिस्सा हाईकोर्ट के समक्ष कई वर्षों तक लंबित रहीं अपीलकर्ताओं की अग्रिम जमानत अर्जियों के निपटारे में हुई “अत्यधिक देरी” को समर्पित था। कोर्ट ने कहा, “व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाली अर्जियों – विशेष रूप से जमानत और अग्रिम जमानत – को अनिश्चित काल तक लंबित नहीं रखा जाना चाहिए।” कोर्ट ने इस प्रथा को “आवेदक के सिर पर डैमोकल्स की तलवार लटकाने” जैसा बताया।

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सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो सहित अपने कई पुराने फैसलों का हवाला देते हुए, कोर्ट ने जोर देकर कहा कि जमानत मामलों का लंबे समय तक लंबित रहना न्याय से इनकार करने के समान है और यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 की भावना के विरुद्ध है।

इस समस्या को दूर करने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने सभी हाईकोर्ट द्वारा अनुपालन के लिए निम्नलिखित निर्देश जारी किए:

क) हाईकोर्ट यह सुनिश्चित करेंगे कि उनके समक्ष लंबित जमानत और अग्रिम जमानत की अर्जियों का निपटारा शीघ्रता से, अधिमानतः दाखिल करने की तारीख से दो महीने की अवधि के भीतर किया जाए।

ख) हाईकोर्ट अधीनस्थ न्यायालयों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े मामलों को प्राथमिकता देने के लिए आवश्यक प्रशासनिक निर्देश जारी करेंगे।

ग) जांच एजेंसियों से अपेक्षा की जाती है कि वे लंबे समय से लंबित मामलों में जांच शीघ्रता से पूरी करें।

घ) हाईकोर्ट को जमानत अर्जियों के ढेर से बचने के लिए एक उचित तंत्र विकसित करना चाहिए, क्योंकि “इस तरह की पेंडेंसी सीधे तौर पर स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर प्रहार करती है।”

कोर्ट ने अपने रजिस्ट्रार (न्यायिक) को तत्काल अनुपालन के लिए इस फैसले की एक प्रति सभी हाईकोर्ट को प्रसारित करने का निर्देश दिया।

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