छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में निजी शैक्षणिक संस्थानों द्वारा दायर याचिकाओं के एक समूह को खारिज कर दिया है। कोर्ट ने कहा है कि ऐसे संस्थान कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 (ESI Act) की धारा 1(5) के तहत “प्रतिष्ठान” की परिभाषा में आते हैं। न्यायमूर्ति रजनी दुबे और न्यायमूर्ति अमितेन्द्र किशोर प्रसाद की खंडपीठ ने राज्य सरकार की 2005 की उस अधिसूचना को बरकरार रखा, जिसने इस सामाजिक कल्याण कानून के प्रावधानों को शैक्षणिक संस्थानों पर लागू किया था। इस फैसले के साथ ही, स्कूलों से अंशदान की मांग करने की कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ESIC) की कार्रवाई को भी सही ठहराया गया है।
अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि अधिसूचना को रद्द करना उन हजारों कर्मचारियों के कल्याण के विरुद्ध होगा जो पहले से ही इस अधिनियम के तहत लाभ प्राप्त कर रहे हैं।
मामले की पृष्ठभूमि
यह कानूनी चुनौती छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा 27 अक्टूबर, 2005 को जारी एक अधिसूचना से उत्पन्न हुई थी। ESI अधिनियम की धारा 1(5) के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए, इस अधिसूचना में सरकार ने 1 अप्रैल, 2006 से अधिनियम के प्रावधानों को “व्यक्तियों, ट्रस्टों, सोसायटियों या अन्य संगठनों द्वारा चलाए जा रहे शैक्षणिक संस्थानों (निजी, सहायता प्राप्त या आंशिक रूप से सहायता प्राप्त सहित), जिनमें 20 या अधिक व्यक्ति कार्यरत हैं,” पर लागू करने का इरादा घोषित किया था।

इसके बाद, ESIC ने कई स्कूलों के खिलाफ कार्यवाही शुरू की। प्रमुख मामले, होली क्रॉस हायर सेकेंडरी स्कूल बनाम छत्तीसगढ़ राज्य में, ESIC ने 24 नवंबर, 2008 को एक नोटिस जारी कर 1 अप्रैल, 1998 से 31 अक्टूबर, 2008 तक की अवधि के लिए ₹7,38,238 के अंशदान की मांग की। स्कूल की आपत्तियों को खारिज कर दिया गया और 18 दिसंबर, 2008 को मूल राशि के साथ ₹1,01,298 के ब्याज की वसूली का आदेश पारित किया गया।
इन कार्रवाइयों से व्यथित होकर, होली क्रॉस हायर सेकेंडरी स्कूल और अन्य संस्थानों ने 2005 की अधिसूचना और उसके बाद की वसूली की कार्यवाही की वैधता को चुनौती देते हुए रिट याचिकाएं दायर कीं।
याचिकाकर्ताओं की दलीलें
याचिकाकर्ता स्कूलों ने तर्क दिया कि अधिसूचना “मनमानी, अवैध, भेदभावपूर्ण और कानून के विपरीत” थी। उनकी मुख्य दलीलें थीं:
- शैक्षणिक संस्थान ‘प्रतिष्ठान’ नहीं हैं: स्कूलों का तर्क था कि वे ESI अधिनियम की धारा 1(5) के अर्थ में “प्रतिष्ठान” नहीं हैं, जो “औद्योगिक, वाणिज्यिक, कृषि, या अन्यथा” प्रतिष्ठानों पर लागू होता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि शिक्षा प्रदान करना समाज के लिए एक धर्मार्थ सेवा है, न कि कोई व्यावसायिक या विनिर्माण गतिविधि।
- प्रक्रियात्मक चूक: याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया कि राज्य सरकार ने अधिनियम का विस्तार करने से पहले आधिकारिक राजपत्र में अपने इरादे की छह महीने की पूर्व सूचना देने की अनिवार्य आवश्यकता का पालन नहीं किया। उन्होंने यह भी दावा किया कि अधिसूचना केंद्र सरकार की अपेक्षित मंजूरी के बिना जारी की गई थी।
प्रतिवादियों का पक्ष
छत्तीसगढ़ राज्य और ESIC ने याचिकाओं का पुरजोर विरोध किया।
- राज्य सरकार ने तर्क दिया कि याचिकाएं “देरी और लापरवाही” के कारण खारिज करने योग्य थीं, क्योंकि वे अधिसूचना जारी होने और व्यापक रूप से प्रचारित होने के वर्षों बाद दायर की गई थीं। सरकार ने प्रस्तुत किया कि केंद्र सरकार की मंजूरी 28 फरवरी, 2005 को विधिवत प्राप्त कर ली गई थी।
- ESIC ने इन तर्कों को दोहराते हुए जोर दिया कि छह महीने की नोटिस अवधि पूरी हो गई थी क्योंकि अधिसूचना 27 अक्टूबर, 2005 को जारी की गई थी और 1 अप्रैल, 2006 से प्रभावी हुई थी। केरल, कलकत्ता और मद्रास हाईकोर्ट के कई फैसलों पर भरोसा करते हुए, ESIC ने कहा कि “प्रतिष्ठान” शब्द का दायरा बहुत व्यापक है और इसमें शैक्षणिक संस्थान भी शामिल हैं।
न्यायालय का विश्लेषण और निर्णय
न्यायमूर्ति अमितेन्द्र किशोर प्रसाद द्वारा लिखे गए फैसले में खंडपीठ ने याचिकाकर्ताओं की दलीलों को व्यवस्थित रूप से खारिज कर दिया। न्यायालय का तर्क स्थापित न्यायिक मिसालों और ESI अधिनियम के सामाजिक-आर्थिक उद्देश्य पर आधारित था।
न्यायालय ने कहा कि केंद्रीय प्रश्न यह था कि क्या शैक्षणिक संस्थान “प्रतिष्ठान” के रूप में योग्य हैं। इसका सकारात्मक उत्तर देते हुए, अदालत ने कई प्रमुख हाईकोर्ट के फैसलों पर भरोसा किया:
- केरल हाईकोर्ट का केरल सीबीएसई स्कूल मैनेजमेंट एसोसिएशन बनाम केरल राज्य मामला: इस फैसले को बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा था, जिसमें कहा गया था कि धारा 1(5) में “अन्यथा” (otherwise) शब्द का दायरा बहुत व्यापक है और यह सरकार को अधिनियम के प्रावधानों को शैक्षणिक संस्थानों तक विस्तारित करने का अधिकार देता है।
- मद्रास हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ का ऑल इंडिया प्राइवेट एजुकेशनल इंस्टीट्यूशंस एसोसिएशन बनाम तमिलनाडु राज्य मामला: अदालत ने इस फैसले का बड़े पैमाने पर उद्धरण दिया, जिसमें कहा गया था कि “ESI अधिनियम निजी शैक्षणिक संस्थानों को अधिनियम के अर्थ में आने वाले ‘प्रतिष्ठान’ मान सकता है।”
अदालत ने इस सिद्धांत को अपनाया कि जहां “कर्मचारियों की सहायता से समुदाय को माल या सेवाएं प्रदान करने के लिए व्यवस्थित और आदतन गतिविधियां की जाती हैं,” ऐसी इकाई को ESI अधिनियम के तहत “प्रतिष्ठान” कहा जा सकता है।
अंत में, अदालत ने व्यापक जनहित को महत्व दिया, यह देखते हुए कि राज्य में लगभग 1,900 शैक्षणिक संस्थान पहले से ही इसके दायरे में हैं, और हजारों कर्मचारी लाभ प्राप्त कर रहे हैं। अदालत ने कहा, “केवल संस्थानों के लाभ के लिए, बड़ी संख्या में कर्मचारियों के व्यापक हित और कल्याण को नजरअंदाज या समझौता नहीं किया जा सकता है।”
यह निष्कर्ष निकालते हुए कि याचिकाएं “गुण-दोष रहित” थीं, हाईकोर्ट ने उन्हें खारिज कर दिया, जिससे 2005 की अधिसूचना बरकरार रही और ESIC को अंशदान की वसूली के लिए आगे बढ़ने की अनुमति मिल गई।