जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में जम्मू-कश्मीर जन सुरक्षा अधिनियम, 1978 (PSA) के तहत जारी एक निवारक हिरासत आदेश को रद्द कर दिया है। हाईकोर्ट ने यह आदेश हिरासत में लेने वाले प्राधिकरण द्वारा “स्पष्ट रूप से विवेक का इस्तेमाल न करने” के आधार पर दिया। कोर्ट ने पाया कि हिरासत का आधार ‘गलत पहचान’ का मामला था, जहां एक व्यक्ति को किसी दूसरे समान नाम वाले व्यक्ति से संबंधित सामग्री के आधार पर हिरासत में ले लिया गया था।
यह फैसला जस्टिस मोक्ष खजूरिया काज़मी ने इम्तियाज अहमद गनी की ओर से दायर एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर सुनाया, जिन्हें 20 अप्रैल, 2024 को जिला मजिस्ट्रेट, अनंतनाग के आदेश पर हिरासत में लिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता, इम्तियाज अहमद गनी, पुत्र अब्दुल मजीद गनी, को आदेश संख्या 13/DMA/PSA/DET/2024 के तहत इस आधार पर हिरासत में लिया गया था कि उनकी गतिविधियाँ केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा के लिए खतरा थीं। याचिका के अनुसार, उन्हें 15 अप्रैल, 2024 को पुलिस स्टेशन अनंतनाग द्वारा गिरफ्तार किया गया और बाद में सेंट्रल जेल, कोट भलवाल, जम्मू भेज दिया गया।

याचिकाकर्ता ने हिरासत के आदेश को यह तर्क देते हुए चुनौती दी कि वह एक “शांतिप्रिय नागरिक” है और यह आदेश विवेक का प्रयोग किए बिना जारी किया गया था, हिरासत के लिए इस्तेमाल की गई सामग्री प्रदान नहीं की गई, प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का पालन नहीं किया गया, और आरोपों का उनसे कोई संबंध नहीं था।
दोनों पक्षों की दलीलें
जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर रहे प्रतिवादियों ने एक जवाबी हलफनामा दायर करते हुए हिरासत को उचित ठहराया। उन्होंने कहा कि हिरासत FIR संख्या 49/2024 की जांच से जुड़ी थी, जो गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, शस्त्र अधिनियम और विस्फोटक पदार्थ अधिनियम के तहत दर्ज की गई थी। यह FIR 24 मार्च, 2024 को “जैश-ए-मोहम्मद संगठन के एक हाइब्रिड आतंकवादी” की गिरफ्तारी से संबंधित थी। प्रतिवादियों ने दावा किया कि हिरासत में लिया गया व्यक्ति एक ओवर ग्राउंड वर्कर (OGW) था जो राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में शामिल था और आगामी आम चुनावों के दौरान आतंकी गतिविधियों को रोकने के लिए उसकी निवारक हिरासत आवश्यक थी।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
जस्टिस मोक्ष खजूरिया काज़मी ने हिरासत के रिकॉर्ड की जांच करने पर हिरासत के आधार में एक गंभीर खामी पाई। कोर्ट ने पाया कि जिस सामग्री के आधार पर हिरासत का आदेश दिया गया था, वह किसी दूसरे व्यक्ति से संबंधित थी।
फैसले में हिरासत के आधार से एक महत्वपूर्ण पैराग्राफ उद्धृत किया गया, जिसमें लिखा था:
“अन्य OGWs और संदिग्ध व्यक्तियों में, इम्तियाज अहमद वानी पुत्र स्वर्गीय आमा वानी निवासी चीर पोरा उत्तरसू शांगुस अनंतनाग को भी पुलिस अनंतनाग ने इस मामले की जांच में पकड़ा था, जिससे पूरी तरह और चतुराई से पूछताछ की गई… हालांकि व्यक्ति के खिलाफ एकत्र किए गए सबूत उसे ठोस कानूनों के तहत मामले में बुक करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, लेकिन पहली नजर में मामले में उसकी संलिप्तता से इनकार नहीं किया जा सकता है।“
हाईकोर्ट ने पाया कि यह रिकॉर्ड ‘गलत पहचान’ का मामला दर्शाता है, क्योंकि हिरासत में लिए गए व्यक्ति का नाम इम्तियाज अहमद गनी है, न कि इम्तियाज अहमद वानी। कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि “हिरासत में लेने वाले प्राधिकरण ने आदेश पारित करते समय अपने सामने रखी गई सामग्री पर विवेक का इस्तेमाल नहीं किया, और यह चूक आदेश की जड़ पर ही प्रहार करती है।”
कोर्ट ने प्रतिवादियों के जवाबी हलफनामे में इस विसंगति का कोई औचित्य नहीं पाया। एक कड़ी टिप्पणी में, कोर्ट ने कहा:
“हिरासत में लेने वाला प्राधिकरण बेशर्मी से उस सामग्री के आधार पर आदेश को सही ठहराने की कोशिश कर रहा है जिसमें हिरासत में लिए गए व्यक्ति की संलिप्तता का कोई जिक्र ही नहीं है, इस प्रकार, जिस बुनियाद पर हिरासत में लिए गए व्यक्ति को फंसाया गया और निवारक हिरासत में रखा गया, वह स्वतः ही ढह गई है।“
चूंकि याचिका केवल विवेक का इस्तेमाल न करने के आधार पर ही सफल हो गई, इसलिए कोर्ट ने चुनौती के अन्य आधारों की जांच करना आवश्यक नहीं समझा। कोर्ट ने अमीना बेगम बनाम तेलंगाना राज्य (2023) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि यदि हिरासत का आदेश विवेक का इस्तेमाल किए बिना दिया गया हो तो वह टिक नहीं सकता।
फैसला
यह निष्कर्ष निकालते हुए कि याचिकाकर्ता यह साबित करने में सफल रहा कि हिरासत प्राधिकरण ने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया, हाईकोर्ट ने याचिका स्वीकार कर ली। दिनांक 20 अप्रैल, 2024 के विवादित हिरासत आदेश को रद्द कर दिया गया। कोर्ट ने प्रतिवादियों को निर्देश दिया कि वे हिरासत में लिए गए व्यक्ति, इम्तियाज अहमद गनी, को तत्काल रिहा करें।