कांग्रेस शासित कर्नाटक सरकार ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में कहा कि संवैधानिक व्यवस्था के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल केवल “औपचारिक प्रमुख” हैं और केंद्र तथा राज्यों में मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता के लिए बाध्य हैं।
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम की दलीलें सुनीं। पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर भी शामिल थे।
सुब्रमण्यम ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल को किसी भी आपराधिक कार्यवाही से छूट मिली हुई है, क्योंकि वे स्वयं कोई कार्यकारी शक्ति का प्रयोग नहीं करते। उन्होंने कहा, “विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की संतुष्टि दरअसल मंत्रिपरिषद की संतुष्टि होती है।” उन्होंने जोर देकर कहा कि राज्य में निर्वाचित सरकार के समानांतर कोई प्रशासनिक ढांचा संविधान में प्रावधानित नहीं है।

मुख्य न्यायाधीश गवई ने पूछा कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 197, जिसमें लोकसेवकों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए पूर्व स्वीकृति अनिवार्य है, उसके संदर्भ में क्या राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही कार्य करना होगा? सुब्रमण्यम ने उत्तर दिया कि कई निर्णयों में यह कहा गया है कि इस मामले में राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह से स्वतंत्र होकर विवेकाधिकार का प्रयोग करते हैं।
यह दलीलें राष्ट्रपति द्वारा किए गए संवैधानिक संदर्भ का हिस्सा हैं। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मई में अनुच्छेद 143(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय से राय मांगी थी कि क्या अदालत राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय सीमा निर्धारित कर सकती है।
इस संदर्भ में 14 अहम सवाल शामिल हैं, जिनमें यह भी है कि क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति अनिश्चितकाल तक विधेयकों पर निर्णय टाल सकते हैं और क्या अदालतें अनिवार्य समय सीमा तय कर सकती हैं।
पश्चिम बंगाल सरकार ने 3 सितंबर को दलील दी थी कि राज्यपाल जनता की इच्छा को, जो विधेयक के रूप में प्रकट होती है, अपने “मनमानेपन” पर निर्भर नहीं कर सकते। राज्य सरकार ने कहा कि किसी विधेयक की विधायी क्षमता पर सवाल उठाना न्यायपालिका का अधिकार क्षेत्र है, न कि कार्यपालिका का।
मंगलवार को सुनवाई का आठवाँ दिन था, जिसमें अदालत विधायी सर्वोच्चता, कार्यपालिका के विवेक और न्यायिक निगरानी के बीच संवैधानिक संतुलन पर विचार कर रही है।