केंद्र सरकार ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट से कहा कि राज्य सरकारें संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत राष्ट्रपति या राज्यपालों के विधेयकों पर किए गए निर्णयों को चुनौती देने के लिए रिट अधिकार क्षेत्र का सहारा नहीं ले सकतीं।
पांच-न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ, जिसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.आर. गवई कर रहे हैं और जिसमें न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए.एस. चंद्रचूड़कर शामिल हैं, इस मुद्दे पर अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए संदर्भ पर सुनवाई कर रही है।
केंद्र का पक्ष
केंद्र की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि:

- संविधान के तहत राज्यों के पास मौलिक अधिकार नहीं हैं, इसलिए वे अनुच्छेद 32 के तहत रिट याचिका दायर नहीं कर सकते।
- राष्ट्रपति और राज्यपालों द्वारा विधेयकों पर सहमति देने या उसे रोकने की कार्रवाई न्यायालय के दायरे में नहीं आती।
- अनुच्छेद 361 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपालों को अपने संवैधानिक कर्तव्यों के निर्वहन में की गई कार्रवाई के लिए न्यायिक कार्यवाही से छूट प्राप्त है, इसलिए उन पर न्यायालय कोई निर्देश जारी नहीं कर सकता।
मेहता ने स्पष्ट किया कि भले ही इस मुद्दे पर पहले बहस हो चुकी हो, राष्ट्रपति ने भविष्य के लिए कानूनी स्थिति स्पष्ट करने हेतु सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी है।
न्यायालय में बहस
सॉलिसिटर जनरल ने 8 अप्रैल को दिए गए तमिलनाडु संबंधी फैसले का हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यदि राज्यपाल समयसीमा में विधेयकों पर कार्रवाई नहीं करते तो राज्य सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं।
इस पर मुख्य न्यायाधीश गवई ने टिप्पणी की कि भले ही पीठ उस दो-न्यायाधीशों के फैसले पर टिप्पणी नहीं करेगी, परंतु “राज्यपाल छह महीने तक किसी विधेयक पर बैठे रहें, यह उचित नहीं है।”
मेहता ने तर्क दिया कि एक संवैधानिक अंग की निष्क्रियता दूसरे पर न्यायिक निर्देश देने का आधार नहीं हो सकती। इस पर सीजेआई गवई ने कहा:
“हां, हमें आपकी दलील पता है। लेकिन यदि यह अदालत 10 साल तक कोई मामला नहीं निपटाती, तो क्या राष्ट्रपति को आदेश जारी करने का अधिकार होगा?”
बड़ा संवैधानिक सवाल
यह सुनवाई मई 2024 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए संदर्भ का हिस्सा है, जिसमें उन्होंने यह राय मांगी थी कि क्या न्यायालय राष्ट्रपति या राज्यपालों को विधेयकों पर कार्रवाई के लिए समयसीमा तय कर सकता है।
26 अगस्त को पीठ ने यह चिंता भी जताई थी कि यदि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयकों पर निर्णय टालते रहें तो क्या न्यायपालिका “असहाय” रह जाएगी, और क्या इससे महत्वपूर्ण मनी बिल भी अटक सकते हैं।
इस मामले में भाजपा शासित राज्यों की ओर से भी दलीलें दी गईं, जिनमें कहा गया कि “किसी कानून पर सहमति अदालत नहीं दे सकती” और यह चेतावनी दी गई कि न्यायपालिका “हर समस्या की दवा” नहीं बन सकती।
आगे क्या
अब संविधान पीठ यह तय करेगी कि:
- क्या राज्य अनुच्छेद 32 के तहत राष्ट्रपति या राज्यपालों की कार्रवाई को चुनौती देने का अधिकार रखते हैं?
- क्या न्यायपालिका संवैधानिक पदाधिकारियों को विधेयकों पर कार्रवाई के लिए समयसीमा तय कर सकती है?
- क्या असहमति या देरी पर न्यायिक समीक्षा की गुंजाइश है?