सुप्रीम कोर्ट ने 26 अगस्त, 2025 को दिए एक फैसले में यह स्पष्ट किया है कि किसी व्यवसाय के प्रोपराइटर (एकल स्वामी) के खिलाफ दायर किया गया मुकदमा सुनवाई योग्य है, और इसके लिए प्रोपराइटरशिप फर्म को अलग से पक्षकार बनाना अनिवार्य नहीं है। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें एक वाद (plaint) को केवल इसलिए खारिज कर दिया गया था क्योंकि संशोधन के बाद प्रोपराइटरशिप फर्म को मुकदमे में पक्षकार नहीं बनाया गया था। शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाया कि प्रोपराइटर को पक्षकार बनाने से फर्म के हितों की पर्याप्त रूप से रक्षा होती है, क्योंकि कानूनी तौर पर दोनों में कोई अंतर नहीं है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला, डोगिपर्थी वेंकट सतीश एवं अन्य बनाम पिल्ला दुर्गा प्रसाद एवं अन्य, एक बेदखली के मुकदमे से संबंधित है। अपीलकर्ता, डोगिपर्थी वेंकट सतीश और एक अन्य, एक संपत्ति के मालिक थे, जिसे 13 अप्रैल, 2005 को एक पंजीकृत लीज डीड के तहत ‘आदित्य मोटर्स’ को पट्टे पर दिया गया था। ‘आदित्य मोटर्स’ पिल्ला दुर्गा प्रसाद की एक एकल स्वामित्व वाली फर्म है। पट्टे की अवधि समाप्त होने के बाद, पट्टेदार ने संपत्ति खाली नहीं की। इसके बाद, मालिकों ने आदित्य मोटर्स (प्रतिवादी संख्या 1), एक उप-पट्टेदार मेसर्स एसोसिएटेड ऑटो सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड (प्रतिवादी संख्या 2), और उसके दो निदेशकों के खिलाफ बेदखली का मुकदमा (मूल वाद संख्या 118, 2012) दायर किया।
मुकदमे की सुनवाई के दौरान, वादी ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश VI नियम 17 के तहत वाद में संशोधन के लिए एक आवेदन दायर किया। संशोधन में प्रतिवादी संख्या 1 के रूप में ‘आदित्य मोटर्स’ का नाम हटाने और उसके स्थान पर ‘पिल्ला दुर्गा प्रसाद’ को पट्टेदार के प्रतिनिधि के रूप में प्रतिस्थापित करने की मांग की गई थी। ट्रायल कोर्ट ने 28 मार्च, 2018 को इस संशोधन की अनुमति दे दी, और इस आदेश को चुनौती नहीं दिए जाने के कारण यह अंतिम हो गया।

पक्षकारों की दलीलें
संशोधन के बाद, प्रतिवादी पिल्ला दुर्गा प्रसाद ने CPC के आदेश VII नियम 11 के तहत वाद को खारिज करने के लिए एक आवेदन दिया। इस आवेदन का मुख्य आधार यह था कि चूंकि मूल लीज डीड ‘आदित्य मोटर्स’ के साथ थी और अब फर्म का नाम मुकदमे से हटा दिया गया है, इसलिए पिल्ला दुर्गा प्रसाद के खिलाफ उनकी व्यक्तिगत क्षमता में कोई वाद कारण (cause of action) नहीं बनता है।
वादी ने इस आवेदन का विरोध करते हुए तर्क दिया कि ‘आदित्य मोटर्स’ केवल पिल्ला दुर्गा प्रसाद के एकल स्वामित्व वाली फर्म का एक व्यावसायिक नाम है। उन्होंने दलील दी कि एक प्रोपराइटरशिप फर्म कोई विधिक व्यक्ति (juristic person) नहीं है और वाद का कारण हमेशा पिल्ला दुर्गा प्रसाद के खिलाफ था, जो फर्म के एकमात्र मालिक और लीज डीड पर हस्ताक्षरकर्ता थे। उन्होंने तर्क दिया कि व्यावसायिक नाम के स्थान पर प्रोपराइटर का नाम प्रतिस्थापित करने से मुकदमे पर कोई सारभूत प्रभाव नहीं पड़ता है।
ट्रायल कोर्ट ने वादी के तर्कों को स्वीकार करते हुए 2 जुलाई, 2018 को वाद खारिज करने के आवेदन को अस्वीकार कर दिया। इस आदेश से व्यथित होकर, पिल्ला दुर्गा प्रसाद ने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के समक्ष एक सिविल पुनरीक्षण याचिका दायर की।
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
हाईकोर्ट ने पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार करते हुए ट्रायल कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और वाद को खारिज कर दिया। हाईकोर्ट का निर्णय CPC के आदेश XXX नियम 10 की उसकी व्याख्या पर आधारित था, जिसमें यह निष्कर्ष निकाला गया कि प्रोपराइटरशिप फर्म को मुकदमे में एक पक्षकार होना चाहिए था।
हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील की सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने इस “अति-तकनीकी दृष्टिकोण” से असहमति व्यक्त की। जस्टिस विक्रम नाथ की अध्यक्षता वाली बेंच ने माना कि ट्रायल कोर्ट का आवेदन खारिज करने का निर्णय सही था।
अदालत ने एक प्रोपराइटरशिप फर्म की कानूनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा, “एक प्रोपराइटरशिप फर्म और कुछ नहीं, बल्कि एक व्यक्ति द्वारा अपना व्यवसाय चलाने के लिए दिया गया एक व्यावसायिक नाम है। एक प्रोपराइटरशिप फर्म एक विधिक व्यक्ति नहीं है।”
आदेश XXX नियम 10 CPC का विश्लेषण करते हुए, अदालत ने कहा कि यह प्रावधान किसी व्यक्ति को, जो अपने नाम के अलावा किसी अन्य नाम से व्यवसाय कर रहा है, उस नाम से मुकदमा चलाने की अनुमति देता है। फैसले में इस नियम के महत्व को स्पष्ट किया गया:
““आदेश XXX नियम 10 CPC में ‘कर सकता है’ (can) शब्द का प्रयोग केवल यह इंगित करता है कि प्रोपराइटरशिप फर्म को एक पक्षकार बनाया जा सकता है। हालांकि, इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि यदि प्रोपराइटर को स्वयं एक पक्षकार बनाया गया है तो वह पर्याप्त नहीं होगा, क्योंकि प्रोपराइटरशिप का बचाव केवल प्रोपराइटर द्वारा ही किया जाना है, किसी और के द्वारा नहीं।”
अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि जब प्रोपराइटर को पक्षकार बनाया जाता है तो कोई पूर्वाग्रह नहीं होता, क्योंकि वह प्रोपराइटरशिप के हितों के लिए एकमात्र जिम्मेदार व्यक्ति है। बेंच ने कहा, “आदेश XXX नियम 10 CPC किसी भी तरह से प्रोपराइटर के खिलाफ मुकदमा दायर करने पर रोक नहीं लगाता है।”
सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले फैसले अशोक ट्रांसपोर्ट एजेंसी बनाम अवधेश कुमार एवं अन्य (1998) 5 SCC 567 का हवाला दिया, जिसमें यह स्थापित किया गया था कि एक प्रोपराइटरशिप फर्म केवल एक व्यावसायिक नाम है और जिस वास्तविक पक्ष पर मुकदमा चलाया जा रहा है, वह प्रोपराइटर है।
निर्णय
अपील को स्वीकार करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया। CPC के आदेश VII नियम 11 के तहत आवेदन को खारिज करने वाले ट्रायल कोर्ट के आदेश को बहाल कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को कानून के अनुसार मुकदमे को उसके गुण-दोष के आधार पर आगे बढ़ाने का निर्देश दिया।