क्या राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक रोक सकते हैं? सुप्रीम कोर्ट की चिंता, मनी बिल पर भी सवाल

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को सवाल उठाया कि क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति विधायिका द्वारा पारित विधेयकों पर हस्ताक्षर (अनुमोदन) देने में अनिश्चितकाल तक देरी कर सकते हैं और क्या इस तरह की स्थिति में न्यायालय “बेबस” हो जाएगा। अदालत ने यह भी आशंका जताई कि यदि विवेकाधीन शक्ति का अर्थ यही है, तो क्या मनी बिल (धन विधेयक) को भी रोका जा सकता है।

मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशीय संविधान पीठ ने यह टिप्पणी राष्ट्रपति के संदर्भ पर सुनवाई के दौरान की। यह संदर्भ इस बात पर है कि क्या अदालतें राज्यपालों और राष्ट्रपति को विधेयकों पर कार्यवाही के लिए समय-सीमा तय करने का अधिकार रखती हैं। पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए.एस. चंद्रचूड़कर भी शामिल थे।

पीठ ने पूछा कि यदि कोई विधेयक 2020 में पारित हुआ और 2025 तक भी उस पर सहमति नहीं दी गई, तो क्या अदालत हाथ पर हाथ धरे बैठी रहेगी।
मुख्य न्यायाधीश गवई ने कहा—“हम समझते हैं कि हम समय-सीमा तय नहीं कर सकते, लेकिन अगर कोई संवैधानिक पदाधिकारी विधेयक को सालों तक रोक दे, तो क्या अदालत के पास कोई शक्ति नहीं बचेगी?”

न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने चेतावनी दी कि इस व्याख्या के अनुसार तो “यहां तक कि मनी बिल भी रोका जा सकता है, जबकि सामान्य परिस्थितियों में ऐसा संभव नहीं है।”

READ ALSO  Nitish Katara Murder: Supreme Court Extends Vikas Yadav’s Interim Bail by 4 Weeks to Care for Ailing Mother

मध्यप्रदेश सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता नीरज किशन कौल ने दलील दी कि विधेयकों पर सहमति उच्च संवैधानिक कार्य है, जिसे न्यायालय समय-सीमा में नहीं बाँध सकता। उन्होंने कहा कि इस परख के लिए “न्यायिक रूप से प्रबंधनीय मानक” मौजूद ही नहीं हैं और यह निर्णय संसद पर ही छोड़ना चाहिए।

महाराष्ट्र की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता हारीश साल्वे ने कहा कि अनुच्छेद 200 में समय-सीमा का उल्लेख नहीं है और विधेयकों पर निर्णय कई बार “राजनीतिक विचार-विमर्श” पर आधारित होता है। उन्होंने अनुच्छेद 361 का हवाला भी दिया, जिसके तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने कार्यों के लिए अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं होते।

केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने स्पष्ट किया कि मनी बिल को राज्यपाल नहीं रोक सकते, क्योंकि अनुच्छेद 207 के तहत ऐसा विधेयक केवल राज्यपाल की सहमति से ही सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है।

READ ALSO  इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह विवाद की सुनवाई के लिए 30 सितंबर की तारीख तय की

अदालत ने कहा कि वह संविधान को दोबारा नहीं लिख सकती, लेकिन यदि विवेकाधिकार का उपयोग अनिश्चितकालीन हो तो यह जवाबदेही पर गंभीर सवाल खड़ा करता है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि अप्रैल 8 को तमिलनाडु मामले में दिए गए अपने फैसले की समीक्षा इस संदर्भ में नहीं की जाएगी।

उत्तर प्रदेश और ओडिशा की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के.एम. नटराज ने तर्क दिया कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को विधेयकों पर सहमति देने से पहले पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त है और अदालतें इसमें समय-सीमा नहीं बाँध सकतीं।

READ ALSO  RSS के किसी भी सदस्य को मानहानि का मुकदमा दायर करने का अधिकार है: केरल हाई कोर्ट

पीठ ने संकेत दिया कि अदालत राज्यपाल से यह तो पूछ सकती है कि वे विधेयक क्यों रोक रहे हैं, लेकिन उन्हें मजबूर कर सहमति देने का आदेश नहीं दे सकती। साल्वे ने कहा—“अदालत केवल यह पूछ सकती है कि आपका निर्णय क्या है, लेकिन यह नहीं पूछ सकती कि आपने वह निर्णय क्यों लिया।”

Law Trend
Law Trendhttps://lawtrend.in/
Legal News Website Providing Latest Judgments of Supreme Court and High Court

Related Articles

Latest Articles