अगर संवैधानिक पदाधिकारी दायित्व नहीं निभाते तो क्या अदालतें बेबस रहेंगी? सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से पूछा

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को सवाल उठाया कि यदि संवैधानिक पदाधिकारी, जैसे कि राज्यपाल, अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन नहीं करते या विधानसभा से पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने में अनिश्चितकालीन देरी करते हैं, तो क्या संवैधानिक अदालतें हाथ पर हाथ धरे बैठी रहेंगी।

मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए.एस. चंदुरकर शामिल हैं, यह सुनवाई कर रही है। पीठ अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए संदर्भ पर विचार कर रही है कि क्या अदालतें राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर कार्रवाई करने की समयसीमा तय कर सकती हैं।

केंद्र की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि यदि राज्यपाल विधेयकों पर निर्णय लेने में देर करते हैं, तो समाधान राजनीतिक संवाद से निकाला जाना चाहिए, न कि अदालत के हस्तक्षेप से।
उन्होंने कहा, “देश की हर समस्या का हल अदालत में नहीं मिल सकता। प्रायः राज्य सरकारें राज्यपाल, प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति से बातचीत करके गतिरोध दूर करती हैं।”

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मेहता ने यह भी जोड़ा कि संविधान में कहीं भी राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए विधेयकों पर कार्रवाई करने की समयसीमा तय नहीं की गई है, जब तक कि वह विशेष रूप से न लिखी गई हो। उन्होंने कहा, “अदालत संसद से कानून बनाने का अनुरोध कर सकती है, लेकिन यह काम अदालत के आदेश से नहीं हो सकता।”

सीजेआई गवई ने सवाल किया:
“यदि संवैधानिक पदाधिकारी बिना कारण अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं करते तो क्या संवैधानिक अदालत के हाथ बंधे रहेंगे? अगर कोई गलत है, तो उसका उपचार होना चाहिए। यह अदालत संविधान की संरक्षक है।”

न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा:
“यदि राज्यपाल की ओर से निष्क्रियता होती है और कोई राज्य अदालत का दरवाजा खटखटाता है, तो क्या न्यायिक समीक्षा पूरी तरह से वर्जित हो सकती है?”

न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने भी सवाल किया:
“अगर यह कहा जाए कि हमारे पास बिल्कुल भी शक्ति नहीं है, तो संविधान को कैसे चलाया जाएगा?”

सुनवाई के दौरान जब मेहता ने चेतावनी दी कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को कमजोर नहीं दिखाना चाहिए, तो सीजेआई गवई ने स्पष्ट किया:
“हमने कभी निर्वाचित लोगों के खिलाफ कुछ नहीं कहा। मैं हमेशा कहता हूं कि न्यायिक सक्रियता को कभी भी न्यायिक आतंकवाद या न्यायिक साहसिकता में नहीं बदलना चाहिए।”

यह मामला सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल के तमिलनाडु राज्यपाल मामले के फैसले से जुड़ा है। उस फैसले में शीर्ष अदालत ने पहली बार कहा था कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचारार्थ भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा।

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इसके बाद, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) का उपयोग कर सर्वोच्च न्यायालय से राय मांगी कि क्या अदालतें इस प्रकार की समयसीमा तय करने वाले आदेश दे सकती हैं।

बहस के दौरान अदालत ने यह दोहराया कि यदि संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन नहीं होता, तो उसके लिए कोई न कोई उपचार उपलब्ध होना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि अदालत संविधान की व्याख्या कर उसका शाब्दिक अर्थ तय करने की जिम्मेदारी निभाएगी।

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