सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने बुधवार को कहा कि न्याय तक पहुँच के मामले में विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग और वंचित तबके के बीच की खाई को पाटना अनिवार्य है। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि कानूनी सहायता कोई दान नहीं बल्कि लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए “संवैधानिक ऑक्सीजन” है।
वे “न्याय सबके लिए – कानूनी सहायता और मध्यस्थता: बार और बेंच की साझा भूमिका” शीर्षक व्याख्यान में बोल रहे थे।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा, “जो बात मुझे गहराई से परेशान करती है वह यह विरोधाभास है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में न्याय तक पहुँच लंबे समय तक सम्पन्न वर्ग का विशेषाधिकार रहा। जब वकालती फीस मासिक आय से अधिक हो जाए, जब प्रक्रियाएँ उस साक्षरता की माँग करें जो करोड़ों के पास नहीं है, जब न्यायालय के गलियारे स्वागत करने के बजाय भयभीत करें — तब हम एक कठोर सच्चाई का सामना करते हैं।”

उन्होंने कहा कि न्यायालयों को अक्सर न्याय का मंदिर कहा जाता है, लेकिन उनके द्वार उन्हीं लोगों के लिए तंग बने हुए हैं जिनकी सेवा के लिए उन्हें स्थापित किया गया था।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की एक सुनवाई का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि वरिष्ठ अधिवक्ता आग्रह कर रहे थे कि मामला सीधे शीर्ष अदालत सुने। इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा, “क्या सुप्रीम कोर्ट सिर्फ़ चुनिंदा वादकारियों और वकीलों के लिए है? जब हम न्याय के मंदिर की बात करते हैं तो हमें उन लोगों की चिंता करनी चाहिए जिनके पास न्याय तक पहुँच नहीं है।”
उन्होंने सुझाव दिया कि वरिष्ठ अधिवक्ता हर माह 2-3 अतिरिक्त मामले निःशुल्क (प्रो बोनो) आधार पर कानूनी सहायता समितियों के माध्यम से या राज्य विधिक सेवा प्राधिकरणों से आए मामलों में लें।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने लंबित मामलों की बड़ी संख्या पर भी चिंता जताई। उन्होंने कहा कि “जब न्याय बहुत देर से मिलता है तो सबसे मज़बूत कानूनी सहायता ढाँचा भी अपना महत्व खो देता है। लंबित मामलों की भारी संख्या का अर्थ है कि लाखों नागरिक न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं और उनके लिए देर से मिला न्याय अक्सर न मिलने के बराबर होता है।”
उन्होंने कहा कि बार-बार स्थगन (अजर्नमेंट), यद्यपि कभी-कभी आवश्यक होते हैं, लेकिन वे सुनवाई की गति को प्रभावित करते हैं। “जटिल मामलों में बहुदिवसीय सुनवाई भी प्रवाह को धीमा कर देती है। इन सबका संयुक्त प्रभाव यह है कि हमें सामूहिक रूप से यह विचार करना चाहिए कि न्यायिक ईमानदारी से समझौता किए बिना दक्षता कैसे बढ़ाई जाए।”
उन्होंने मध्यस्थता (मेडिएशन) की अहमियत बताते हुए कहा कि वकील जब मध्यस्थता को अपनाते हैं तो वे न केवल विवाद सुलझाते हैं बल्कि रिश्तों को भी बचाते हैं। “वे जीत पर समझ को, विजय पर संवाद को और हानि पर उपचार को चुनते हैं। अदालतें निर्णय करती हैं, मध्यस्थ उपचार करते हैं। यह प्राचीन बुद्धिमत्ता अब 2023 के मध्यस्थता अधिनियम में सबसे व्यापक कानूनी रूप में सामने आई है।”
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि कानून को हर भाषा में बोलना चाहिए, हर गाँव को सिखाना चाहिए और न्याय की हर पुकार का उत्तर देना चाहिए। उन्होंने कहा, “हमें साहस, नवाचार, सहयोग और दृढ़ संकल्प की ज़रूरत है ताकि संविधान में निहित गारंटियाँ केवल कागज़ पर न रहकर व्यवहार में भी लागू हों।”