सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को सरकारी विभागों में कर्मचारियों से वर्षों तक अस्थायी या दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम लेने की प्रथा को कड़ी आलोचना करते हुए ‘एड-हॉकिज़्म’ करार दिया और कहा कि यह व्यवस्था न केवल प्रशासन में विश्वास को कमजोर करती है बल्कि संवैधानिक गारंटियों का भी उल्लंघन करती है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्य एक संवैधानिक नियोक्ता है और वह बार-बार होने वाले सार्वजनिक कार्यों को करने वाले कर्मचारियों के श्रम पर बजट संतुलन नहीं कर सकता।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि लंबे समय तक नियमित काम को अस्थायी नाम देकर करवाना प्रशासनिक विश्वास को खत्म करता है और समान संरक्षण के अधिकार का उल्लंघन है।
“राज्य मात्र बाज़ार का हिस्सा नहीं बल्कि एक संवैधानिक नियोक्ता है। जहाँ कार्य रोज़ाना और लगातार होता है, वहाँ उस वास्तविकता को स्वीकृत पदों और नियुक्ति प्रक्रियाओं में प्रतिबिंबित होना चाहिए,” पीठ ने टिप्पणी की।

कोर्ट ने यह भी कहा कि वित्तीय तंगी नीति का हिस्सा हो सकती है, लेकिन यह कर्मचारियों के अधिकारों से मुकरने का सार्वभौमिक बहाना नहीं बन सकती। “‘एड-हॉकिज़्म’ वहीं पनपता है जहाँ प्रशासन अपारदर्शी होता है,” आदेश में कहा गया।
पीठ ने राज्य सरकारों और विभागों को यह निर्देश भी दिया कि वे सटीक स्थापना रजिस्टर, उपस्थिति पंजी और आउटसोर्सिंग व्यवस्थाएँ रखें और सबूत के साथ बताएं कि स्थायी पदों पर नियुक्ति की बजाय अस्थायी नियुक्ति क्यों की जा रही है।
यह फैसला उन कर्मचारियों की अपील पर आया जिन्हें 1989 से 1992 के बीच उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा सेवा आयोग ने नियुक्त किया था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पहले उनकी याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी थी कि वे दिहाड़ी मजदूर थे और आयोग के नियमों में नियमितीकरण का कोई प्रावधान नहीं है।
हाईकोर्ट के आदेश को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सभी कर्मचारियों को 24 फरवरी 2002 से नियमित करने का निर्देश दिया। इसके लिए राज्य सरकार और उत्तराधिकारी संस्था, उत्तर प्रदेश शिक्षा सेवा चयन आयोग, को संबंधित श्रेणियों (क्लास-III: ड्राइवर आदि तथा क्लास-IV: चपरासी/अटेंडेंट/गार्ड आदि) में अधिसंख्यक पद सृजित करने का आदेश दिया गया।
पीठ ने कहा कि पद सृजन करना भले ही कार्यपालिका का अधिकार है, लेकिन पद न देने का निर्णय मनमानेपन से मुक्त नहीं हो सकता और यह न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता है। केवल वित्तीय संकट का हवाला देते हुए नियमित काम कर रहे दिहाड़ी मज़दूरों को नज़रअंदाज़ करना अनुचित है।
“लंबे समय तक असुरक्षा की स्थिति में रखे जाने के मानवीय परिणामों के प्रति संवेदनशील होना कोई भावुकता नहीं, बल्कि संवैधानिक अनुशासन है,” आदेश में कहा गया।