पैतृकता जानने का बच्चे का अधिकार पिता की निजता से श्रेष्ठ: पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने बल प्रयोग के बिना डीएनए परीक्षण को सही ठहराया

पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि किसी वयस्क संतान द्वारा दायर पितृत्व संबंधी वाद में उसका अपनी पैतृकता जानने का अधिकार, कथित पिता के निजता के अधिकार से ऊपर है। न्यायमूर्ति अर्चना पूरी ने याचिकाकर्ता की पुनरीक्षण याचिका खारिज करते हुए कहा कि निचली अदालत द्वारा दिया गया डीएनए परीक्षण का आदेश सही है, किंतु रक्त नमूना लेने के लिए पुलिस बल या किसी प्रकार का दबाव प्रयोग नहीं किया जा सकता। अदालत ने यह भी कहा कि यदि आदेश का पालन नहीं किया जाता है तो ट्रायल कोर्ट प्रतिकूल अनुमान लगाने के लिए स्वतंत्र होगा।

प्रकरण की पृष्ठभूमि

वादी ने घोषणा संबंधी वाद दायर कर दावा किया कि वह प्रतिवादी संख्या-1 (याचिकाकर्ता) और प्रतिवादी संख्या-2 (उसकी मां) का पुत्र है। उसका कहना था कि 1988 में प्रतिवादी संख्या-1 उसकी मां के घर किरायेदार बने और दोनों पति-पत्नी की तरह साथ रहने लगे, जिससे उसका जन्म 1990 में हुआ।

वादी ने आरोप लगाया कि 2000 तक वह दोनों प्रतिवादियों के साथ रहा, लेकिन बाद में प्रतिवादी संख्या-1 घर छोड़ गया और स्कूल रिकॉर्ड में गुपचुप उसकी मां के पूर्व पति का नाम दर्ज करा दिया।

Video thumbnail

याचिकाकर्ता ने दावे से इनकार करते हुए कहा कि वादी उसका पुत्र नहीं है और मां ने अपने पूर्व पति से 26 फरवरी 1994 को तलाक लिया था, जबकि वादी का जन्म 1990 में हुआ। दूसरी ओर, मां ने अपने पुत्र के दावों को स्वीकार किया।

वादी ने ट्रायल कोर्ट में आवेदन देकर प्रतिवादी संख्या-1 के डीएनए परीक्षण की मांग की। 27 नवंबर 2015 को निचली अदालत ने आवेदन स्वीकार करते हुए परीक्षण का आदेश दिया और कहा कि आवश्यकता पड़ने पर पुलिस की सहायता ली जा सकती है। इसी आदेश को चुनौती देते हुए याचिकाकर्ता हाईकोर्ट पहुंचा।

READ ALSO  सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक अनियमितताओं के बीच संपूर्ण चयन प्रक्रिया को रद्द करने के लिए अहम सिद्धांत तय किए

पक्षकारों की दलीलें

याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया कि वादी का जन्म उसकी मां की वैवाहिक अवधि में हुआ, इसलिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 के तहत वैधता का निर्णायक अनुमान लागू होता है। यह भी कहा गया कि “नॉन-एक्सेस” का कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है और डीएनए परीक्षण के लिए विवश करना निजता और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन होगा।

वादी-पुत्र की ओर से तर्क दिया गया कि अब जब वह वयस्क हो चुका है, तो उसका अपनी पैतृकता जानना और उससे जुड़े अधिकार प्राप्त करना उसके सर्वोत्तम हित में है। न्यायालय के पास ऐसे परीक्षण का आदेश देने की शक्ति है ताकि सत्य सामने आ सके।

READ ALSO  मोदी उपनाम मामला: झारखंड हाई कोर्ट ने राहुल गांधी को व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट दी

अदालत का विश्लेषण

न्यायमूर्ति अर्चना पूरी ने धारा 112 भारतीय साक्ष्य अधिनियम का उल्लेख करते हुए कहा कि यह धारा तब लागू होती है जब किसी वैवाहिक संबंध के दौरान जन्मे बच्चे की वैधता पर पति-पत्नी में से कोई विवाद करता है। लेकिन जब बच्चा स्वयं वयस्क होकर पैतृकता स्थापित करने के लिए अदालत आता है, तो यह स्थिति अलग है।

अदालत ने कहा—
“ऐसी परिस्थिति में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 का प्रयोग नहीं होता।”

न्यायालय ने टिप्पणी की—
“वादी, जो स्वयं बच्चा है, का अपनी पैतृकता जानने का अधिकार है… न्याय के लिए यह आवश्यक है कि सत्य सामने आए।”

निजता के अधिकार पर अदालत ने कहा—
“निजता का अधिकार बच्चे के अधिकार और उसके हितों पर हावी नहीं हो सकता।”

READ ALSO  दिल्ली एक्साइज घोटाला': कोर्ट ने मनीष सिसौदिया, संजय सिंह की न्यायिक हिरासत 20 जनवरी तक बढ़ाई

साथ ही कोर्ट ने कहा कि डीएनए परीक्षण पितृत्व तय करने का सबसे सुनिश्चित साधन है और इससे न्यायालय को निष्पक्ष निष्कर्ष पर पहुंचने में सहायता मिलेगी।

निष्कर्ष

हाईकोर्ट ने निचली अदालत का डीएनए परीक्षण आदेश बरकरार रखा, लेकिन बल प्रयोग की अनुमति हटा दी। अदालत ने कहा कि यदि याचिकाकर्ता परीक्षण कराने से इंकार करता है तो ट्रायल कोर्ट उसकी अनिच्छा दर्ज कर प्रतिकूल अनुमान लगाने के लिए स्वतंत्र होगा। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया कि यह आदेश केवल पुनरीक्षण याचिका के निस्तारण तक सीमित रहेगा और वाद के गुण-दोष पर इसका प्रभाव नहीं होगा।

Law Trend
Law Trendhttps://lawtrend.in/
Legal News Website Providing Latest Judgments of Supreme Court and High Court

Related Articles

Latest Articles