साधारण वैवाहिक कलह को ‘क्रूरता’ नहीं माना जा सकता: मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने तलाक अपील खारिज की

न्यायमूर्ति विशाल धागत और न्यायमूर्ति रामकुमार चौबे की खंडपीठ ने हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(i-a) के तहत दायर तलाक की अपील को खारिज कर दिया। अदालत ने द्वितीय अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश, पारिवारिक न्यायालय, जबलपुर के उस आदेश को बरकरार रखा जिसमें तलाक याचिका को अस्वीकृत किया गया था।

पृष्ठभूमि

विवाह मई 2007 में हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार सम्पन्न हुआ था। इस वैवाहिक संबंध से 2009 और 2019 में दो पुत्र उत्पन्न हुए। अपीलकर्ता ने आरोप लगाया कि विवाह की शुरुआत से ही संबंधों में असहमति बनी रही।

उनका कहना था कि प्रतिवादी ने ससुराल में रहने से इनकार किया, पारिवारिक परंपराओं की अवहेलना की, परिवार परामर्श केंद्र में शिकायतें कीं, आत्महत्या की धमकी दी और महीनों तक मायके में रही। यह भी आरोप लगाया गया कि प्रतिवादी ने सहवास से इनकार किया, झूठे दहेज प्रकरण की धमकी दी और मार्च 2024 में बच्चों सहित वैवाहिक घर छोड़कर मायके चली गई। मई 2024 में भेजे गए कानूनी नोटिस के उत्तर में प्रतिवादी ने वापस आने की इच्छा जताई, लेकिन साथ ही उचित देखभाल और निर्वाह का आश्वासन मांगा।

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नवंबर 2024 में पारिवारिक न्यायालय ने तलाक याचिका खारिज कर दी और कहा कि न तो ‘क्रूरता’ और न ही ‘परित्याग’ सिद्ध हुआ। इस आदेश के विरुद्ध फैमिली कोर्ट्स एक्ट, 1984 की धारा 19 के अंतर्गत हाईकोर्ट में अपील की गई।

हाईकोर्ट में पक्षकारों के तर्क

अपीलकर्ता के वकील ने केवल क्रूरता के आधार पर तलाक की मांग रखी। उनका कहना था कि बिना प्रतिवाद के रही गवाही और दस्तावेजी साक्ष्य से यह स्पष्ट है कि अपीलकर्ता मानसिक और शारीरिक क्रूरता का शिकार हुआ। उन्होंने तर्क दिया कि पारिवारिक न्यायालय ने एकतरफा और बिना चुनौती के उपलब्ध साक्ष्यों का सही मूल्यांकन नहीं किया।

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अदालत का विश्लेषण

1. परित्याग (Desertion)

खंडपीठ ने पाया कि प्रतिवादी ने मार्च 2024 में वैवाहिक घर छोड़ा था, जबकि तलाक याचिका जुलाई 2024 में दायर की गई। धारा 13(1)(ib) के अनुसार परित्याग सिद्ध करने के लिए कम से कम दो वर्षों की अवधि आवश्यक है। इस प्रकार यह आधार उपलब्ध ही नहीं था।

2. क्रूरता (Cruelty)

अदालत ने कहा कि क्रूरता का अर्थ ऐसा आचरण है जिससे पति या पत्नी के लिए साथ रहना असंभव हो जाए। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली, AIR 2006 SC 1675 का हवाला दिया गया।

खंडपीठ ने अपीलकर्ता के बयान का बारीकी से परीक्षण किया। इसमें यह आरोप शामिल थे कि प्रतिवादी ससुराल में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाईं, विवाह प्रतीक जैसे मंगलसूत्र त्याग दिया, और कोविड-19 महामारी के दौरान लंबे समय तक मायके में रहीं। अदालत ने कहा कि ये बातें “वैवाहिक जीवन के साधारण उतार-चढ़ाव” हैं और इन्हें ऐसी गंभीर क्रूरता नहीं माना जा सकता जिससे विवाह विच्छेद उचित हो।

प्रतिवादी द्वारा भेजे गए नोटिस के उत्तर पर अदालत ने विशेष ध्यान दिया। उसमें प्रतिवादी ने स्पष्ट किया था कि वह वापस आना चाहती है, लेकिन पति से उचित देखभाल, निर्वाह और निष्ठा का आश्वासन चाहती है। इस पर अदालत ने कहा:

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“किसी भी पत्नी की यह अपेक्षा हो सकती है कि उसका पति उसके और बच्चों के प्रति संवेदनशील रहे और वैवाहिक दायित्वों के प्रति ईमानदार हो।”

खंडपीठ ने यह भी कहा कि कभी-कभी सहवास से इनकार करना अपने आप में क्रूरता नहीं है। यह देखते हुए कि पति-पत्नी 17 वर्षों तक साथ रहे और उनके दो बच्चे हुए, यह कहा जा सकता है कि उनका वैवाहिक जीवन सामान्य रूप से निर्वाह हुआ।

इस संदर्भ में अदालत ने स्म्ट. स्वप्ना चक्रवर्ती बनाम डॉ. विप्लय चक्रवर्ती, AIR 1999 MP 163 का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि लगातार और स्थायी रूप से सहवास से इनकार करना मानसिक क्रूरता सिद्ध कर सकता है।

इसी प्रकार अदालत ने डॉ. एन.जी. दास्ताने बनाम श्रीमती एस. दास्ताने, AIR 1975 SC 1534 का हवाला देते हुए कहा कि क्रूरता सिद्ध करने का दायित्व याचिकाकर्ता पर ही होता है, चाहे प्रतिवादी मुकदमे का प्रतिवाद करे या न करे।

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साथ ही, अदालत ने गुरबक्श सिंह बनाम हरमिंदर कौर, 2010 AIR SCW 6160 का उल्लेख करते हुए कहा कि साधारण तकरार और झगड़े तलाक के आधार पर ‘क्रूरता’ नहीं माने जा सकते।

फैसला

अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्ता द्वारा क्रूरता सिद्ध नहीं की जा सकी। आदेश में कहा गया:

“जो घटनाएं अपीलकर्ता ने पारिवारिक न्यायालय के समक्ष बयान की हैं, वे पति-पत्नी के बीच साधारण तकरार और झगड़े हैं, जो सामान्य जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन उन्हें क्रूरता नहीं माना जा सकता।”

इस प्रकार खंडपीठ ने कहा कि अपील निराधार है और इसे खारिज किया जाता है। पारिवारिक न्यायालय का आदेश यथावत् बरकरार रखा गया।

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