सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य के निर्देश पर रिश्वत की रकम स्वीकार करता है, तो जब तक उस पर ‘अभियोजन में सहायता’ (abetment) का विशेष आरोप न हो और मिलीभगत का सबूत न हो, उसे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 7 और धारा 13 के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता। न्यायमूर्ति पंकज मित्तल और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले की पीठ ने ग्राम सहायक (A-2) की सजा रद्द कर दी, जबकि ग्राम प्रशासनिक अधिकारी (A-1) की सजा बरकरार रखते हुए उसे घटाकर अधिनियम के तहत न्यूनतम एक वर्ष कर दिया। कोर्ट ने यह राहत लंबी मुकदमेबाजी और मामूली रकम को देखते हुए दी।
मामले की पृष्ठभूमि
शिकायतकर्ता वी. रंगासामी (PW-2) ने सामुदायिक प्रमाणपत्र के लिए आवेदन किया था, जिसे ग्राम प्रशासनिक अधिकारी ए. करुणानिथि (A-1) के पास रिपोर्ट के लिए भेजा गया। अभियोजन के अनुसार, 9 नवंबर 2004 को जब शिकायतकर्ता A-1 से मिला, तो उसने 500 रुपये की रिश्वत मांगी। यह मांग 27 नवंबर 2004 को दोहराई गई।
इसके बाद शिकायतकर्ता ने सतर्कता एवं भ्रष्टाचार निरोधक विभाग के पुलिस निरीक्षक को शिकायत दी। 3 दिसंबर 2004 को जाल बिछाया गया। जब शिकायतकर्ता A-1 से मिला, तो उसने 500 रुपये की मांग दोहराई और ग्राम सहायक पी. करुणानिथि (A-2) को रकम लेने का निर्देश दिया। शिकायतकर्ता ने फिनॉल्फ्थलीन पाउडर लगे नोट A-2 को दे दिए।

संकेत मिलने पर पुलिस ने मौके पर पहुंचकर नोट जब्त किए और A-2 के हाथ धुलवाने पर पानी गुलाबी हो गया। FIR दर्ज हुई और जांच के बाद दोनों के खिलाफ धारा 7 तथा धारा 13(1)(d) सहपठित धारा 13(2) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत आरोपपत्र दाखिल हुआ।
विशेष न्यायालय ने दोनों को दोषी ठहराया। A-1 को धारा 13 में तीन वर्ष और धारा 7 में दो वर्ष का कठोर कारावास तथा A-2 को क्रमशः 1.5 वर्ष और 1 वर्ष का कठोर कारावास दिया गया। मद्रास हाईकोर्ट ने उनकी अपील खारिज कर दी, जिसके बाद दोनों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।
पक्षकारों के तर्क
वरिष्ठ अधिवक्ता एस. नागमुथु ने A-1 के लिए सजा घटाने की मांग की, यह कहते हुए कि वह 68 वर्ष के हैं, रिश्वत की रकम केवल 500 रुपये थी और घटना 2004 की है।
A-2 के लिए तर्क दिया गया कि उसके खिलाफ कोई सबूत नहीं है कि उसने कभी रिश्वत मांगी या A-1 की पहली मांग के समय मौजूद था। बिना मांग और प्राप्ति के दोषसिद्धि नहीं हो सकती। साथ ही, बिना ‘अभियोजन में सहायता’ का आरोप लगाए सजा नहीं दी जा सकती।
राज्य की ओर से कहा गया कि A-1 के खिलाफ मामला शिकायतकर्ता (PW-2) और राजस्व मंडल अधिकारी (PW-1) के सबूत से साबित है और सजा में नरमी नहीं बरती जानी चाहिए। A-2 के संबंध में राज्य ने कहा कि उसने A-1 की ओर से रकम ली और औपचारिक ‘अभियोजन में सहायता’ का आरोप न होने से उसकी दोषसिद्धि प्रभावित नहीं होती।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
कोर्ट ने पहले A-2 का मामला देखा। पीठ ने कहा कि धारा 7 और 13 के तहत दोषसिद्धि के लिए रिश्वत की ‘मांग’ और ‘स्वीकार’ दोनों अनिवार्य (sine qua non) हैं, जैसा कि नीरज दत्ता बनाम राज्य (दिल्ली) के संविधान पीठ फैसले में कहा गया है।
कोर्ट ने पाया, “यह किसी का भी मामला नहीं है कि A-2 ने कभी अवैध gratification की मांग की। उसने निस्संदेह A-1 के निर्देश पर रकम ली और अपने पास रखी। अतः उसकी ओर से कोई मांग नहीं थी।” A-1 की मांग को A-2 से नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि कोई सबूत नहीं है कि वह नियमित रूप से ऐसे काम करता था या A-1 की भ्रष्ट गतिविधियों में मदद कर रहा था।
महत्वपूर्ण रूप से, A-2 पर ‘अभियोजन में सहायता’ का आरोप ही नहीं था। कोर्ट ने कहा, “संभव है कि उसने निर्दोष भाव से A-1 के कहने पर रकम ली हो या जानबूझकर ली हो। दोनों संभावनाएं हैं।” लेकिन मिलीभगत का सबूत न होने से उसे सहयोगी नहीं माना जा सकता।
इस संदर्भ में कोर्ट ने महेंद्र सिंह चोटेलाल भार्गद बनाम महाराष्ट्र राज्य का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि “किसी अन्य की ओर से रकम लेना अपराध में सहायता हो सकती है, परंतु बिना आरोप के सजा नहीं दी जा सकती।” इस आधार पर कोर्ट ने माना कि निचली अदालतों ने A-2 को दोषी ठहराने में गलती की।
A-1 के मामले में कोर्ट ने सबूत को पर्याप्त पाया। पीठ ने कहा, “सबूत से सिद्ध होता है कि उसने शिकायतकर्ता से न केवल एक बार बल्कि दो बार रिश्वत मांगी, और जाल बिछाने के समय भी मांग की। उसके behalf पर A-2 ने रकम ली।”
सजा घटाने के मुद्दे पर कोर्ट ने 2004 की घटना, मामूली रकम और लंबे समय से मुकदमेबाजी को देखते हुए न्यूनतम एक वर्ष की सजा देना उचित माना। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह सहानुभूति से नहीं बल्कि कानून के दायरे में है।
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने पी. करुणानिथि (A-2) की अपील स्वीकार करते हुए उसकी दोषसिद्धि और सजा रद्द कर दी।
ए. करुणानिथि (A-1) की अपील आंशिक रूप से स्वीकार की गई। उसकी दोषसिद्धि बरकरार रखते हुए सजा तीन और दो वर्ष से घटाकर दोनों अपराधों के लिए न्यूनतम एक वर्ष कठोर कारावास कर दी गई।