सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी विशेष शक्तियों का प्रयोग करते हुए वैवाहिक विवाद से उत्पन्न आपराधिक कार्यवाही, जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के आरोप भी शामिल थे, को रद्द कर दिया। न्यायालय ने कहा कि जब पति-पत्नी आपसी सहमति से तलाक लेकर अपने विवादों का निपटारा कर चुके हों, तब पति और उसके परिजनों के खिलाफ अभियोजन को जारी रखना “कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग” होगा।
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरथना और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के उस आदेश को निरस्त कर दिया, जिसमें एफआईआर को रद्द करने से इनकार किया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला नवनीश अरोड़ा (अपीलकर्ता संख्या 1) और उत्तरदाता संख्या 2 के बीच वैवाहिक संबंध से संबंधित था, जिनका विवाह 6 मार्च 2018 को हुआ था। मतभेदों के कारण उत्तरदाता संख्या 2 लगभग दस महीने बाद matrimonial home छोड़कर चली गईं।

इसके बाद, 15 मई 2019 को उत्तरदाता संख्या 2 ने थाना रादौर, जिला यमुनानगर, हरियाणा में एफआईआर संख्या 67 दर्ज कराई, जिसमें पति और उसके माता-पिता (अपीलकर्ता संख्या 2 और 3) पर भारतीय दंड संहिता की धारा 323, 406, 498-ए और 506 के तहत आरोप लगाए गए। 7 नवंबर 2019 को आरोपपत्र दाखिल किया गया।
बाद में, पक्षकारों ने आपसी सहमति से विवाद सुलझा लिया और 19 जनवरी 2024 को फैमिली कोर्ट ने आपसी सहमति से तलाक का डिक्री पारित किया। तलाक के बाद, उत्तरदाता संख्या 2 ने अपने सभी लंबित मामले वापस ले लिए। अपीलकर्ताओं ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट में एफआईआर रद्द करने की अर्जी दी। उत्तरदाता संख्या 2 ने इस पर कोई आपत्ति नहीं जताई, लेकिन हाईकोर्ट ने यह कहते हुए अर्जी खारिज कर दी कि पत्नी के पिछले विवाह से हुए बच्चे के उत्पीड़न से संबंधित कुछ आरोप साबित हुए थे। इससे आहत होकर अपीलकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंचे।
पक्षकारों के तर्क
अपीलकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री अभिनव रामकृष्ण ने दलील दी कि जब पक्षकार आपसी सहमति से तलाक ले चुके हैं और समझौता हो चुका है, तो आपराधिक मुकदमा जारी रखने का कोई औचित्य नहीं है। तलाक का डिक्री अंतिम रूप ले चुका है और उत्तरदाता संख्या 2 को एफआईआर रद्द करने पर कोई आपत्ति नहीं है।
वहीं, हरियाणा राज्य की ओर से डिप्टी एडवोकेट जनरल श्री शेखर राज शर्मा ने कहा कि शिकायत उचित थी क्योंकि अपीलकर्ता संख्या 1 द्वारा बच्चे के उत्पीड़न के विशिष्ट आरोप लगाए गए थे, इसलिए यह मुकदमा रद्द करने योग्य नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने विचार के लिए यह मुख्य प्रश्न तय किया—
“क्या, पक्षकारों के बीच हुए समझौते के मद्देनज़र, एफआईआर संख्या 67/2019 में लगाए गए आरोप अनुच्छेद 142 के तहत इस न्यायालय की असाधारण शक्तियों के प्रयोग को उचित ठहराते हैं?”
पीठ ने कहा कि वैवाहिक विवादों में पति के हर रिश्तेदार को आरोपी बनाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। दारा लक्ष्मी नारायण बनाम स्टेट ऑफ तेलंगाना (2025) 3 SCC 735 में दिए गए निर्णय का हवाला देते हुए कहा गया कि बिना ठोस तथ्यों के रिश्तेदारों पर मुकदमा चलाना “कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग” है।
अदालत ने यह भी कहा कि आपराधिक कानून को “उत्पीड़न के औज़ार” के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। माला कर बनाम स्टेट ऑफ उत्तराखंड और अरुण जैन बनाम स्टेट ऑफ NCT दिल्ली के मामलों में भी तलाक के बाद कार्यवाही रद्द की गई थी, यह कहते हुए कि ऐसे मामलों में मुकदमा जारी रखना “कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग” है।
पीठ ने स्पष्ट किया—
“जब वैवाहिक संबंध तलाक के साथ समाप्त हो चुका हो और पक्षकार अपनी-अपनी ज़िंदगी में आगे बढ़ चुके हों, तो आपराधिक कार्यवाही को जारी रखना, विशेषकर तब जब निकट और ठोस आरोप न हों, किसी वैध उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता। यह केवल कड़वाहट को बढ़ाता है और आपराधिक न्याय प्रणाली पर बोझ डालता है।”
अदालत ने जिन तथ्यों को निर्णायक माना, वे थे—
- आपसी सहमति से तलाक का डिक्री पारित होकर अंतिम रूप ले चुका है।
- सभी विवादों का निपटारा हो चुका है।
- सभी लंबित मामले वापस ले लिए गए हैं।
- उत्तरदाता संख्या 2 को कार्यवाही रद्द करने पर कोई आपत्ति नहीं है।
गियान सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब (2012) 10 SCC 303 का हवाला देते हुए अदालत ने दोहराया कि matrimonial disputes में पक्षकारों के बीच सौहार्दपूर्ण निपटान होने पर, गैर-समझौता योग्य अपराधों में भी कार्यवाही रद्द की जा सकती है यदि उसे जारी रखना “निष्फल” होगा और “न्याय की हानि” होगी।
अंतिम आदेश
विशेष परिस्थितियों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए आदेश दिया—
“हम दिनांक 07.11.2019 के आरोपपत्र और दिनांक 15.05.2019 की एफआईआर संख्या 67, थाना रादौर, जिला यमुनानगर, हरियाणा, जो अपीलकर्ता संख्या 1 से 3 के खिलाफ धारा 323, 406, 498-ए और 506 आईपीसी में दर्ज है, तथा उससे संबंधित सभी आपराधिक कार्यवाहियों को रद्द करते हैं।”
हाईकोर्ट का आदेश रद्द करते हुए पीठ ने कहा कि अब मुकदमा जारी रखना उत्तरदाता संख्या 2 की मंशा नहीं है और इसका जारी रहना “सिर्फ अपीलकर्ताओं के लिए उत्पीड़न का उदाहरण” होगा तथा “कोई सार्थक उद्देश्य पूरा नहीं करेगा।”