तलाक के बाद पति-पत्नी के परिजनों पर आपराधिक मामला जारी रखने का कोई औचित्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि तलाक के बाद पति-पत्नी के परिजनों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही जारी रखना “किसी भी वैध उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता” और केवल कटुता को लंबा खींचता है।

जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के आदेश को पलटते हुए ससुर के खिलाफ दहेज निषेध अधिनियम और भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए (पति या उसके रिश्तेदार द्वारा क्रूरता) सहित अन्य धाराओं में दर्ज एफआईआर रद्द कर दी। यह मामला बहू द्वारा तलाक से पहले दर्ज कराया गया था।

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संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत “पूर्ण न्याय” करने की शक्ति का उपयोग करते हुए अदालत ने कहा:

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“जब वैवाहिक संबंध तलाक के साथ समाप्त हो चुके हों और पक्षकार अपनी-अपनी ज़िंदगी में आगे बढ़ चुके हों, तो परिजनों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही जारी रखना, खासकर जब उनके खिलाफ कोई ठोस और नज़दीकी आरोप न हो, किसी भी वैध उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता।”

पीठ ने कहा कि ऐसे मामले न्याय प्रणाली पर अनावश्यक बोझ डालते हैं और परिवारों के बीच कटुता को बढ़ाते हैं। अदालत ने इस “बार-बार दिखने वाली प्रवृत्ति” पर चिंता जताई जिसमें वैवाहिक विवाद होते ही पति के पूरे परिवार को, उनकी वास्तविक भूमिका या संलिप्तता के बिना, आरोपी बना दिया जाता है।

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पिछले फैसलों का हवाला देते हुए कोर्ट ने दोहराया कि वे रिश्तेदार जो अलग रहते हैं या जिनका ससुराल से कोई सीधा संबंध नहीं है, उन्हें बिना ठोस और विस्तृत आरोपों के मुकदमों में न घसीटा जाए। ऐसे मामलों को अदालत ने “कानून का दुरुपयोग” बताया।

यह आदेश उस अपील पर आया जिसमें एक व्यक्ति ने हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें एफआईआर रद्द करने से इनकार कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने नोट किया कि 2021 में तलाक का डिक्री अंतिम रूप से पारित हो चुका है और दोनों पक्ष स्वतंत्र जीवन जी रहे हैं। अदालत ने व्यक्तिगत विवादों को समाप्त करने के लिए कार्यवाही रद्द करने का आदेश दिया।

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