आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट: वाद की स्वीकार्यता का प्रश्न ट्रायल में तय होगा, पंजीकरण चरण में नहीं

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि ट्रायल कोर्ट वाद के पंजीकरण चरण में कुछ प्रतिवादियों के विरुद्ध वाद की स्वीकार्यता के गुण-दोष पर विचार नहीं कर सकता। न्यायमूर्ति रवि नाथ तिलहरी ने एक सिविल पुनरीक्षण याचिका स्वीकार करते हुए निचली अदालत का आदेश रद्द कर दिया, जिसमें धन वसूली वाद को पंजीकरण से इंकार किया गया था। कोर्ट ने निर्देश दिया कि वादपत्र को संख्या दी जाए और कानून के अनुसार आगे बढ़ाया जाए।

हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि पक्षकारों की देनदारी से जुड़े प्रश्न, जिसमें हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6(4) जैसी वैधानिक प्रावधानों की प्रयोज्यता शामिल है, मुद्दों के निर्धारण और ट्रायल के बाद ही तय किए जाने चाहिए, न कि प्रारंभिक पंजीकरण चरण में।

पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता मगंटी मन्जुला ने गुडिवाड़ा के प्रधान सिविल न्यायाधीश (कनिष्ठ प्रभाग) के समक्ष एक धन वसूली वाद दायर किया था। वाद एक प्रतिज्ञा पत्र (Promissory Note) पर आधारित था, जिसे प्रतिवादी संख्या 1 पल्लापोथु नारायण राव ने कथित रूप से निष्पादित किया था। वादपत्र में राव की दो नाबालिग पुत्रियों को भी प्रतिवादी संख्या 2 और 3 बनाया गया था।

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वाद में कहा गया कि राव ने संयुक्त परिवार के ‘कर्था’ के रूप में अपने और अपनी पुत्रियों की ओर से ऋण लिया था, इसलिए पुत्रियां भी ऋण चुकाने के लिए उत्तरदायी हैं।

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हालांकि, 13 मई 2025 को ट्रायल कोर्ट ने वादपत्र लौटा दिया और पंजीकरण से इंकार कर दिया। अदालत ने नाबालिग पुत्रियों की देनदारी पर सवाल उठाते हुए हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के बाद की धारा 6(4) का हवाला दिया। निचली अदालत के अनुसार, संशोधन के बाद केवल पितृऋण (Pious Obligation) के आधार पर पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र (जिसमें पुत्रियां भी शामिल हैं) के खिलाफ वसूली संभव नहीं है।

इस आदेश के खिलाफ वादिनी ने संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत हाईकोर्ट में पुनरीक्षण याचिका दाखिल की।

हाईकोर्ट में पक्षकारों की दलीलें

याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता श्री कम्भमपाटि रमेश बाबू ने तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट ने पंजीकरण चरण में ही स्वीकार्यता के मुद्दे पर निर्णय देकर कानून की त्रुटि की है। उन्होंने कहा कि नाबालिग पुत्रियों के खिलाफ वाद की स्वीकार्यता और धारा 6(4) की प्रयोज्यता का प्रश्न “ट्रायल के दायरे” में आता है और इसे पंजीकरण से पहले नहीं खारिज किया जा सकता।

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हाईकोर्ट का विश्लेषण व निर्णय

न्यायमूर्ति तिलहरी ने याचिकाकर्ता के तर्क से सहमति जताई। कोर्ट ने कहा कि क्या पुत्रियों की देनदारी पितृऋण के आधार पर बनती है या नहीं, यह प्रश्न ट्रायल में साक्ष्यों के आधार पर ही तय किया जा सकता है।

अदालत ने कहा, “क्या प्रतिवादी संख्या 1 के जीवनकाल में कोई पितृऋण उत्पन्न होगा या नहीं, यह भी एक प्रासंगिक बिंदु है। अतः धारा 6(4) की प्रयोज्यता का प्रश्न ट्रायल के दौरान ही विचारणीय है।”

न्यायालय ने महत्वपूर्ण टिप्पणी की — “धारा 6(4) में वाद दायर करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है… अधिकतम यह हो सकता है कि प्रतिवादी संख्या 2 और 3 के खिलाफ वाद खारिज हो जाए, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वाद का पंजीकरण ही न हो और ट्रायल न किया जाए।”

हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि प्रतिवादी संख्या 1, जिसने प्रतिज्ञा पत्र निष्पादित किया था, के खिलाफ वाद निश्चित रूप से स्वीकार्य है। साथ ही, यदि कोई पक्षकार गलत तरीके से जोड़ा गया है तो ट्रायल कोर्ट आदेश 1 नियम 10 सीपीसी के तहत उसे हटाने का अधिकार रखता है।

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अंत में अदालत ने कहा, “निचली अदालत ने पंजीकरण चरण में ही प्रतिवादी संख्या 2 और 3 के विरुद्ध वाद की स्वीकार्यता के गुण-दोष में जाकर अपने अधिकार क्षेत्र से आगे कदम बढ़ाया है।”

इस प्रकार, हाईकोर्ट ने पुनरीक्षण याचिका स्वीकार करते हुए 13 मई 2025 का आदेश रद्द कर दिया और ट्रायल कोर्ट को वाद पंजीकृत कर कानून के अनुसार आगे बढ़ाने का निर्देश दिया। साथ ही स्पष्ट किया कि यह टिप्पणियां केवल पंजीकरण के मुद्दे तक सीमित हैं और वाद या पक्षकारों के बचाव के गुण-दोष पर कोई राय नहीं देतीं।

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