सुप्रीम कोर्ट ने अपने दो मासूम बच्चों की हत्या के आरोप में दोषसिद्ध एक महिला को बरी करते हुए कहा है कि “अनुमानों और अटकलों” के आधार पर किसी को सज़ा नहीं दी जा सकती। मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट दोनों के फैसले को रद्द करते हुए यह स्पष्ट किया कि अभियोजन का मामला पूरी तरह एकमात्र गवाह की परिस्थितिजन्य गवाही पर आधारित था, जो संदेह से परे साबित नहीं हुआ।
पृष्ठभूमि
यह घटना 11 अक्टूबर 2003 की है। अभियोजन के अनुसार, साक्षी संतोष कुमार पांडे (PW-2), जो बीटेल की दुकान चलाते थे, ने देखा कि अपीलकर्ता शैल कुमारी अपने दो बच्चों—एक दो वर्षीय पुत्र और चार महीने की पुत्री—के साथ पुजारी तालाब की ओर जा रही थीं। उन्होंने उसकी “असामान्य स्थिति” देखकर एक रिक्शाचालक से कहा कि वह देखे कि महिला कहां जा रही है।
PW-2 के अनुसार, रिक्शाचालक कुछ मिनटों बाद लौटा और बताया कि दो बच्चे पानी में तैर रहे हैं। इसके बाद उन्होंने देखा कि महिला रेलवे ट्रैक की ओर जा रही थी। PW-2 ने एक बाइक सवार से मदद ली और मौके पर पहुंचकर महिला को ट्रेन से पहले खींचकर बचा लिया। पूछताछ करने पर महिला ने बताया कि उसका अपने पति से झगड़ा हुआ था।

बाद में देहाती मर्ग सूचना दर्ज की गई और फिर FIR दर्ज हुआ। पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर पी. अख्तर (PW-6) ने बताया कि बच्चों की मौत का कारण डूबने से हुई अस्फिक्सिया थी।
अपीलकर्ता ने धारा 313 CrPC के तहत अपने बयान में आरोपों से इनकार किया और बताया कि वह मानसिक तनाव में थी क्योंकि उसके पति ने दूसरी शादी कर ली थी। उसने दावा किया कि उसे झूठा फंसाया गया है।
18 जून 2004 को, 2nd एडिशनल सेशंस जज, दुर्ग ने शैल कुमारी को धारा 302 IPC के तहत आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। इस फैसले को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने 8 सितंबर 2010 को बरकरार रखा, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता की ओर से अधिवक्ता श्रीमती ननीता शर्मा ने तर्क दिया कि यह “शून्य साक्ष्य” का मामला है और सज़ा केवल “अनुमानों और अटकलों” पर आधारित है।
वहीं छत्तीसगढ़ राज्य की ओर से अधिवक्ता श्री प्रशांत सिंह ने कहा कि निचली अदालतों के निर्णय साक्ष्यों के सही मूल्यांकन पर आधारित थे और उनमें कोई त्रुटि नहीं थी, इसलिए सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की समीक्षा
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह मामला पूरी तरह परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है। कोर्ट ने Sharad Birdhichand Sarda v. State of Maharashtra (1984) में स्थापित पांच सिद्धांतों को दोहराया:
- जिन परिस्थितियों से दोष सिद्ध किया जाना है, वे पूरी तरह से स्थापित होनी चाहिए।
- वे तथ्य केवल अभियुक्त के दोष सिद्ध होने की धारणा के साथ संगत हों।
- वे परिस्थितियां निर्णायक प्रकृति की हों।
- वे अन्य सभी संभावनाओं को समाप्त करती हों।
- साक्ष्यों की श्रृंखला इतनी पूर्ण हो कि वह केवल अभियुक्त को ही दोषी ठहराए।
कोर्ट ने पाया कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट दोनों ने केवल PW-2 की गवाही के आधार पर सज़ा दी। गवाही की जांच में कोर्ट ने कहा,
“गवाह की मुख्य जिरह में जो बातें कही गई हैं, वे उसके पुलिस बयान से पूरी तरह भिन्न हैं। कोर्ट में दिए गए बयान की कोई बात पुलिस के समक्ष नहीं कही गई थी।”
कोर्ट ने Vadivelu Thevar v. State of Madras (1957) केस का उल्लेख करते हुए PW-2 को “पूरी तरह अविश्वसनीय गवाह” की श्रेणी में रखा और कहा:
“उसकी गवाही पूरी तरह विरोधाभासी है और इसीलिए अविश्वसनीय है।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष ने उस रिक्शाचालक को भी गवाही के लिए पेश नहीं किया, जिसकी भूमिका कथित रूप से महत्वपूर्ण थी।
अंततः पीठ ने कहा:
“PW-2 की गवाही अविश्वसनीय है और अधिक से अधिक इसे सुनी-सुनाई बातों (hearsay) के रूप में माना जा सकता है। ऐसे में अपीलकर्ता को अपराध से जोड़ने के लिए कोई अन्य साक्ष्य नहीं है।”
सुप्रीम कोर्ट का अंतिम निर्णय
6 अगस्त 2025 को दिए गए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“हम स्पष्ट रूप से मानते हैं कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट द्वारा दी गई सज़ा पूरी तरह अनुमानों और अटकलों पर आधारित है। हम मानते हैं कि अपीलकर्ता की सज़ा कानून की दृष्टि से टिकाऊ नहीं है।”
कोर्ट ने निम्न आदेश पारित किया:
- अपील स्वीकार की जाती है।
- ट्रायल कोर्ट का दिनांक 18 जून 2004 और हाईकोर्ट का दिनांक 8 सितंबर 2010 का निर्णय रद्द किया जाता है।
- अपीलकर्ता शैल कुमारी को सभी आरोपों से बरी किया जाता है और यदि वह किसी अन्य मामले में वांछित नहीं हैं, तो तत्काल रिहा किया जाए।