सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश को निरस्त कर दिया है जिसमें POCSO, IPC और एससी/एसटी अधिनियम के अंतर्गत दोषसिद्ध आरोपी की सज़ा को निलंबित करने से इनकार कर दिया गया था। शीर्ष अदालत ने कहा कि हाईकोर्ट ने निश्चित अवधि की सज़ा के मामलों में लागू स्थापित कानूनी सिद्धांतों को सही तरीके से नहीं अपनाया।
पृष्ठभूमि:
आसिफ उर्फ़ पाशा को मेरठ की दूसरी अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश/विशेष न्यायाधीश (POCSO अधिनियम) द्वारा POCSO केस नंबर 270/2016 में निम्नलिखित धाराओं के तहत दोषी ठहराया गया:
- POCSO अधिनियम की धारा 7 और 8,
- भारतीय दंड संहिता की धारा 354, 354ख, 323, और 504,
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3(1)(10)।
न्यायालय ने उसे निम्नानुसार सजा दी:

- धारा 354 IPC के तहत 1 वर्ष का कठोर कारावास और ₹3,000 का जुर्माना,
- POCSO अधिनियम के अंतर्गत 4 वर्ष का कठोर कारावास और ₹4,000 का जुर्माना,
- SC/ST अधिनियम के अंतर्गत 4 वर्ष का कठोर कारावास और ₹5,000 का जुर्माना।
सभी सजाएं साथ-साथ चलने के लिए आदेशित की गईं।
हाईकोर्ट का आदेश:
दोषसिद्धि के खिलाफ आसिफ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में आपराधिक अपील संख्या 8689/2024 दाखिल की और धारा 389 CrPC के तहत सज़ा के निलंबन की याचिका दायर की। हालांकि, 29 मई 2025 को हाईकोर्ट ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी:
“…यह न्यायालय वर्तमान अपील लंबित रहने के दौरान अभियुक्त/अपीलार्थी को जमानत पर रिहा किए जाने हेतु कोई उचित अथवा पर्याप्त आधार नहीं पाता…”
हाईकोर्ट ने अपराध की प्रकृति, गंभीरता, और अभियोजन के पक्ष में प्रस्तुत आपत्तियों को आधार बनाते हुए राहत देने से इनकार कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण:
न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने हाईकोर्ट के आदेश पर असंतोष व्यक्त करते हुए कहा:
“…यह याचिका इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश से उत्पन्न हुई है… जिससे हम निराश हैं।”
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि चूंकि सज़ा निश्चित अवधि की थी (4 वर्ष), ऐसे मामलों में अपील के लंबित रहने की स्थिति में सज़ा निलंबन के लिए अदालत को विशेष संवेदनशीलता दिखानी चाहिए। भगवान रामशिंदे गोसाई बनाम गुजरात राज्य [(1999) 4 SCC 421] का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा:
“…जब किसी व्यक्ति को सीमित अवधि की सज़ा दी गई हो और वह अपील का अधिकार प्रयोग कर रहा हो, तो सज़ा को निलंबित करने पर उदारता से विचार किया जाना चाहिए, जब तक कि कोई अपवादात्मक परिस्थिति न हो।”
कोर्ट ने ओमप्रकाश साहनी बनाम जयशंकर चौधरी [(2023) 6 SCC 123] का हवाला देते हुए दोहराया कि सज़ा निलंबन की याचिका पर विचार करते समय अपीलीय अदालत को साक्ष्यों की पुनः समीक्षा नहीं करनी चाहिए और अभियोजन पक्ष की पूरी कहानी को दोहराना उचित नहीं है।
“…अगर 4 वर्ष जेल में व्यतीत हो गए तो अपील निरर्थक हो जाएगी… यह न्याय का उपहास होगा।”
अंतिम निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का आदेश निरस्त करते हुए कहा:
“हाईकोर्ट पुनः अपीलार्थी द्वारा प्रस्तुत सज़ा निलंबन याचिका पर शीघ्र सुनवाई कर उचित आदेश पारित करे, और यह कार्य आज से 15 दिनों के भीतर किया जाए।”
कोर्ट ने यह भी कहा:
“हमें एक बार फिर यह कहने के लिए विवश होना पड़ रहा है कि ऐसी त्रुटियाँ हाईकोर्ट स्तर पर केवल इसलिए होती हैं क्योंकि तयशुदा विधिक सिद्धांतों का सही ढंग से पालन नहीं किया जाता।”
मामला पुनः सुनवाई के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट को भेजा गया; आदेश 15 दिन में पारित किया जाना है।