सार्वजनिक रिकॉर्ड और चिकित्सकीय राय को अप्रमाणित स्कूल प्रमाणपत्र से अधिक महत्व: सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को नाबालिग मानने का आदेश  रद्द किया

सुप्रीम कोर्ट ने किशोरावस्था के निर्धारण से जुड़े एक अहम फैसले में कहा है कि यदि स्कूल प्रमाणपत्र में जन्म तिथि केवल माता-पिता के मौखिक कथन के आधार पर दर्ज की गई हो, तो उसे उम्र का निर्णायक प्रमाण नहीं माना जा सकता। अदालत ने पारिवारिक रजिस्टर जैसे सार्वजनिक दस्तावेजों और मेडिकल बोर्ड की राय को अधिक विश्वसनीय माना है।

जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने हत्या के एक मामले में आरोपी को नाबालिग घोषित करने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट के आदेशों को रद्द कर दिया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब मामला गंभीर अपराध से जुड़ा हो, तब किशोरावस्था के निर्धारण में “कैज़ुअल या लापरवाह रवैया” नहीं अपनाया जा सकता।

मामला क्या था?

यह मामला 31 अगस्त 2011 को दर्ज एक एफआईआर से जुड़ा है, जिसमें अपीलकर्ता सुरेश ने आरोप लगाया कि उसके चाचा लीलू सिंह और उनका बेटा देवी सिंह (प्रतिवादी संख्या 2) जबरन उसके घर में घुस आए। उन्होंने सुरेश के भाई राजेश को पकड़कर अपने घर ले जाकर देशी पिस्टल से गोली मार दी, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। मामला IPC की धारा 452 और 302 के तहत दर्ज किया गया।

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मुज़फ़्फ़रनगर जिले के कैराना में अपर सत्र जज के समक्ष कार्यवाही के दौरान देवी सिंह ने आवेदन देकर दावा किया कि वह घटना के समय नाबालिग था और उसकी जन्मतिथि 18 अप्रैल 1995 है। ट्रायल कोर्ट ने 19 मई 2015 को इस दावे को स्वीकार करते हुए उसे किशोर घोषित कर दिया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 29 मार्च 2016 को इस आदेश को बरकरार रखा। इसके बाद अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।

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पक्षकारों की दलीलें

अपीलकर्ता ने दलील दी कि निचली अदालतें केवल कौशिक मॉडर्न पब्लिक स्कूल के ट्रांसफर सर्टिफिकेट पर निर्भर रहीं, जहां आरोपी को सीधे कक्षा 5 में दाखिला मिला था। यह जन्मतिथि आरोपी के पिता के मौखिक बयान के आधार पर दर्ज की गई थी, कोई दस्तावेज नहीं दिया गया था। इसके विपरीत, अपीलकर्ता ने यूपी पंचायत राज अधिनियम, 1947 के तहत तैयार पारिवारिक रजिस्टर, वर्ष 2012 की मतदाता सूची (जिसमें उम्र 22 वर्ष दर्शाई गई थी) और मुख्य चिकित्साधिकारी की मेडिकल रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें आरोपी की उम्र 22 वर्ष आंकी गई थी।

उत्तर प्रदेश सरकार ने भी अपीलकर्ता का समर्थन करते हुए कहा कि जब स्कूल प्रमाणपत्र का विरोध सार्वजनिक दस्तावेजों और मेडिकल रिपोर्ट से हो रहा हो, तो उसे प्राथमिकता नहीं दी जा सकती।

वहीं, प्रतिवादी देवी सिंह के वकील ने ट्रायल कोर्ट के फैसले का समर्थन किया और कहा कि उसने जिन चार स्कूलों में पढ़ाई की, सभी के प्रमाणपत्रों में जन्मतिथि समान है। उन्होंने किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) नियम, 2007 के नियम 12 का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि यदि मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट उपलब्ध न हो तो सबसे पहले पढ़े गए स्कूल का प्रमाणपत्र प्राथमिकता में आता है। उन्होंने यह भी बताया कि देवी सिंह को पहले ही किशोर न्याय बोर्ड द्वारा तीन वर्ष की अधिकतम सजा भुगतने के बाद रिहा किया जा चुका है।

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सुप्रीम कोर्ट की विश्लेषणात्मक टिप्पणियां

जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह द्वारा लिखित निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों की प्रक्रिया को “उचित नहीं” माना। कोर्ट ने कहा कि भले ही किशोर न्याय अधिनियम और उसके नियम सर्वोपरि हैं, लेकिन न्याय के हित में अन्य साक्ष्यों पर भी विचार किया जाना चाहिए।

कोर्ट ने पाया कि सभी स्कूल प्रमाणपत्र केवल कौशिक मॉडर्न पब्लिक स्कूल के प्रमाणपत्र पर आधारित थे। उस स्कूल के प्रधानाचार्य ने स्वीकार किया कि जन्मतिथि “केवल प्रतिवादी संख्या 2 के पिता के मौखिक बयान” पर दर्ज की गई थी, जिससे प्रमाणपत्र की विश्वसनीयता संदिग्ध हो गई।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत इस प्रमाणपत्र की कानूनी वैधता का परीक्षण करते हुए कोर्ट ने कहा कि चूंकि यह स्कूल निजी संस्था है, अतः इसका रिकॉर्ड धारा 74 के तहत सार्वजनिक दस्तावेज नहीं माना जा सकता और इसका प्रधानाचार्य “लोक सेवक” नहीं कहा जा सकता।

इसके विपरीत, कोर्ट ने पारिवारिक रजिस्टर को “एक वैधानिक दस्तावेज जो सार्वजनिक अभिलेख है”, माना। मतदाता सूची और मेडिकल रिपोर्ट को भी कोर्ट ने महत्वपूर्ण साक्ष्य माना।

कोर्ट ने Om Prakash v. State of Rajasthan (2012) का हवाला देते हुए कहा:
“जब कोई आरोपी जघन्य अपराध करता है और फिर नाबालिग होने की आड़ में वैधानिक शरण लेने की कोशिश करता है, तो कोर्ट को यह तय करने में लापरवाही नहीं करनी चाहिए कि आरोपी किशोर है या नहीं, क्योंकि कोर्ट की जिम्मेदारी है कि वह आम जनता का न्यायपालिका में विश्वास बनाए रखे।”

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अंततः कोर्ट ने कहा:
“कौशिक मॉडर्न पब्लिक स्कूल, खुरगांव द्वारा जारी प्रमाणपत्र को प्रतिवादी संख्या 2 की जन्मतिथि का निर्णायक प्रमाण नहीं माना जा सकता, विशेष रूप से तब जब पंचायत राज अधिनियम, 1947 के अंतर्गत फॉर्म (A), वर्ष 2012 की मतदाता सूची और मेडिकल रिपोर्ट इसके विरुद्ध साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।”

अंतिम निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट के आदेशों को रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा कि देवी सिंह घटना की तिथि पर बालिग था और अब वयस्क के रूप में मुकदमा झेलेगा। ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया गया कि वह जुलाई 2026 के अंत तक मुकदमे की सुनवाई पूरी करे।

इसके अलावा, किशोर न्याय बोर्ड द्वारा जारी रिहाई के आदेश को भी रद्द किया गया और प्रतिवादी को निर्देश दिया गया कि वह तीन सप्ताह के भीतर ट्रायल कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करे और ज़मानत के लिए आवेदन करे। यदि दोषसिद्ध होता है, तो उसे पूर्व में भुगती गई तीन वर्षों की सज़ा का लाभ (set-off) दिया जाएगा।

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