मृत विवाह को जारी रखने से मानसिक पीड़ा बढ़ती है और इसका कोई उद्देश्य नहीं बचता: सुप्रीम कोर्ट ने 16 वर्षों की अलगाव अवधि का हवाला देते हुए विवाह को किया समाप्त

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत विवाह को समाप्त कर दिया, यह कहते हुए कि दोनों पक्ष 16 वर्षों से अलग रह रहे हैं और उनके वैवाहिक संबंध पूरी तरह टूट चुके हैं। अदालत ने कहा कि मृत विवाह को जबरन बनाए रखना मानसिक पीड़ा और सामाजिक बोझ को ही बढ़ाता है और इसका कोई व्यावहारिक लाभ नहीं है।

पृष्ठभूमि

विवाह 7 मई 2008 को दिल्ली में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार संपन्न हुआ था। 25 मार्च 2009 को एक पुत्र का जन्म हुआ। लेकिन विवाह के कुछ ही समय बाद संबंधों में दरार आ गई और अक्टूबर 2009 से दोनों पक्ष अलग रह रहे हैं।

2010 में पति ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(क) के तहत पारिवारिक न्यायालय, तिस हजारी, दिल्ली में तलाक की याचिका दायर की। उन्होंने पत्नी पर उनकी बीमार मां के साथ मारपीट कर संपत्ति हथियाने की कोशिश, शारीरिक हिंसा, विवाहेतर संबंध और अपने भाई के साथ मिलकर हमला करने के आरोप लगाए।

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पत्नी ने सभी आरोपों से इनकार किया और दावा किया कि पति ने उन्हें और बच्चे को छोड़ दिया तथा आर्थिक सहायता नहीं दी। उन्होंने यह भी कहा कि वह पति और ससुराल पक्ष से लगातार उपेक्षा और दुर्व्यवहार झेलती रहीं।

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फैमिली कोर्ट और हाईकोर्ट का निर्णय

पारिवारिक न्यायालय ने 23 नवंबर 2017 को तलाक याचिका खारिज कर दी। कोर्ट ने कहा कि लगाए गए आरोप प्रमाणित नहीं हुए और पति का पक्ष “प्रेरणाहीन और अविश्वसनीय” था।

पति की धारा 24 के तहत अंतरिम भरण-पोषण की याचिका खारिज कर दी गई, जबकि पत्नी और बच्चे के लिए ₹4,500 मासिक भरण-पोषण तथा ₹5,000 वाद व्यय के रूप में निर्धारित किए गए।

दिल्ली हाईकोर्ट ने 26 फरवरी 2019 को अपील खारिज कर दी। हाईकोर्ट ने कहा कि केवल ‘अपरिवर्तनीय टूटन’ के आधार पर तलाक देना ऐसा होगा जैसे पत्नी और बच्चे को छोड़ने वाले पति को इनाम देना। हाईकोर्ट ने ₹10,000 का जुर्माना भी लगाया।

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई

सुप्रीम कोर्ट में यह तर्क दिया गया कि दोनों पक्ष पिछले 16 वर्षों से अलग रह रहे हैं और मेल-मिलाप की कोई संभावना नहीं बची है। साथ ही यह बताया गया कि पत्नी द्वारा दर्ज कराए गए 498ए, 406, 34 आईपीसी के मामले में पति और उनके परिवार को 5 जुलाई 2019 को बरी कर दिया गया था। यह भी तर्क दिया गया कि अब यह विवाह व्यावहारिक और कानूनी दोनों ही दृष्टियों से समाप्त हो चुका है।

याचिकाकर्ता ने Shilpa Sailesh बनाम Varun Sreenivasan [(2023) 4 SCC 692] में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें अदालत ने अनुच्छेद 142 के तहत विवाह समाप्त करने की शक्ति को मान्यता दी थी।

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प्रतिवादी पक्ष ने इसका विरोध किया और कहा कि निचली अदालतों ने एकमत होकर पति के आरोपों को खारिज किया है। यह भी कहा गया कि पति ने बच्चे की पैतृकता से इनकार किया, जो पत्नी और बच्चे की सामाजिक और मानसिक स्थिति के प्रति असंवेदनशीलता को दर्शाता है। साथ ही धारा 125 सीआरपीसी के तहत दिए गए ₹7,500 भरण-पोषण को बढ़ाने की मांग की गई।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने दो महत्वपूर्ण तथ्य रेखांकित किए — एक, कि दोनों पक्ष अक्टूबर 2009 से अलग रह रहे हैं और दूसरा, कि पति और उनके परिवार को आपराधिक मामले में बरी कर दिया गया है।

कोर्ट ने कहा:

“विवाह की संस्था गरिमा, आपसी सम्मान और साझी संगति पर आधारित होती है, और जब ये बुनियादी तत्व अपूरणीय रूप से समाप्त हो जाएं, तो पति-पत्नी को कानूनी रूप से एक-दूसरे से बाँध कर रखना किसी लाभकारी उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता।”

Amutha बनाम ए.आर. सुब्रमणियम [(2023) SCC OnLine SC 611] में दिए गए फैसले का हवाला देते हुए कोर्ट ने दोहराया:

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“पति-पत्नी दोनों की भलाई और गरिमा को प्राथमिकता मिलनी चाहिए, और मृत विवाह को जबरन बनाए रखना केवल मानसिक कष्ट और सामाजिक बोझ को ही बढ़ाता है।”

कोर्ट ने माना कि लंबे समय से चले आ रहे अलगाव और पूर्ण विरक्ति ने यह सिद्ध कर दिया है कि वैवाहिक संबंध अपरिवर्तनीय रूप से टूट चुका है, और इस विवाह को बनाए रखना केवल शत्रुता और मुकदमेबाज़ी को बढ़ावा देगा।

अंतिम निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग करते हुए:

  • दिल्ली हाईकोर्ट का 26 फरवरी 2019 का निर्णय रद्द किया
  • विवाह को समाप्त किया और तलाक की डिक्री प्रदान की
  • पति को आदेश दिया कि वह पत्नी और पुत्र को ₹15,000 प्रतिमाह समेकित भरण-पोषण राशि के रूप में दे

मामले में कोई लागत आदेशित नहीं किया गया। रजिस्ट्री को डिक्री तैयार करने का निर्देश दिया गया।

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