केरल हाईकोर्ट ने एक अहम निर्णय में यह स्पष्ट किया है कि आयकर अधिनियम, 1961 का उल्लंघन कर दिए गए ₹20,000 से अधिक के नकद ऋण को ‘कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण’ नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने कहा कि ऐसे ऋण के आधार पर नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत आपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, जब तक कि उसके लिए वैध स्पष्टीकरण न हो। इसी आधार पर दो निचली अदालतों से दोषसिद्ध व्यक्ति को हाईकोर्ट ने बरी कर दिया।
मामला क्या था?
आरोपी पी.सी. हरि के खिलाफ प्रथम पक्षकार शाइन वर्गीज ने धारा 138 एनआई एक्ट के तहत चेक बाउंस का मुकदमा दर्ज कराया था। शिकायतकर्ता का आरोप था कि आरोपी ने ₹9,00,000 का उधार लिया और उसके एवज में चेक दिया, जो “पर्याप्त धनराशि न होने” के कारण बाउंस हो गया।
नोटिस दिए जाने के बाद आरोपी ने उत्तर भेजकर देनदारी से इनकार किया। पट्टनमथिट्टा की प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट कोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराया और एक वर्ष की सादा कैद के साथ ₹9,00,000 की क्षतिपूर्ति अदा करने का आदेश दिया। अपील में यह फैसला अतिरिक्त सत्र न्यायालय-III, पट्टनमथिट्टा ने भी बरकरार रखा। इसके खिलाफ आरोपी ने हाईकोर्ट में पुनरीक्षण याचिका दायर की।

पक्षकारों की दलीलें
आरोपी की ओर से:
वकील डी. किशोर ने तर्क दिया कि ₹9 लाख की रकम नकद दी गई थी, जो आयकर अधिनियम की धारा 269SS का उल्लंघन है। यह धारा ₹20,000 से अधिक की नकद उधारी पर रोक लगाती है। उन्होंने कहा कि इस तरह के गैरकानूनी लेन-देन से उत्पन्न ऋण को ‘कानूनी रूप से लागू करने योग्य’ नहीं माना जा सकता। उन्होंने यह भी बताया कि शिकायतकर्ता ने यह स्वीकार किया कि उन्होंने इस लेन-देन के लिए आयकर नहीं दिया।
शिकायतकर्ता की ओर से:
वकील मनु रामचंद्रन ने दावा किया कि धारा 269SS का उल्लंघन लेन-देन को शून्य या अमान्य नहीं बनाता, बल्कि इसके लिए धारा 271D के तहत दंड निर्धारित है। उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट के Krishna P. Morajkar v. Joe Ferrao मामले का हवाला देते हुए कहा कि आयकर उल्लंघन राजस्व और संबंधित पक्ष के बीच का मामला है, और आरोपी इसका लाभ नहीं उठा सकता।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां
न्यायमूर्ति पी.वी. कुन्हिकृष्णन ने यह मुख्य प्रश्न उठाया कि क्या कोई अदालत वैधानिक सीमा से अधिक नकद लेन-देन को ‘कानूनी रूप से लागू करने योग्य ऋण’ मान सकती है। उन्होंने टिप्पणी की:
“जब भारत सरकार प्रत्येक नागरिक से डिजिटल भुगतान की दिशा में आगे बढ़ने की अपेक्षा करती है, तो अदालतें नकद लेन-देन को वैधानिक मान्यता नहीं दे सकतीं।”
कोर्ट ने Rangappa v. Sri Mohan के तीन-न्यायाधीश पीठ के निर्णय का हवाला देते हुए माना कि धारा 139 एनआई एक्ट के तहत ‘कानूनी रूप से लागू ऋण’ का अनुमान माना जाता है। हालांकि, उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट के Prakash Madhukarrao Desai फैसले से असहमति जताई, जिसमें यह कहा गया था कि आयकर अधिनियम का उल्लंघन लेन-देन को अमान्य नहीं बनाता।
न्यायालय ने स्पष्ट किया:
“…यदि कोई ₹20,000 से अधिक की नकद राशि अधिनियम 1961 का उल्लंघन करते हुए देता है, और इसके बदले चेक प्राप्त करता है, तो उसे उस रकम को वापस पाने के लिए खुद जिम्मेदार रहना होगा, जब तक कि वह धारा 273B के तहत वैध स्पष्टीकरण न दे। यदि ऐसा स्पष्टीकरण न हो, तो ऐसे लेन-देन के लिए आपराधिक अदालतों के दरवाजे बंद रहेंगे।”
कोर्ट ने कहा कि यदि आरोपी धारा 139 के अनुमान को चुनौती देता है, तो यह शिकायतकर्ता की जिम्मेदारी होगी कि वह नकद लेन-देन के लिए वैध कारण प्रस्तुत करे। इस मामले में शिकायतकर्ता ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि उसने आयकर नहीं दिया और उसे कानून की जानकारी नहीं थी। उसने ₹9 लाख नकद देने का कोई उचित कारण भी नहीं बताया। इसीलिए कोर्ट ने माना कि आरोपी ने अनुमान को ‘संतुलित संभावनाओं’ के आधार पर सफलतापूर्वक खंडित कर दिया है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि Sugunan केस में केरल हाईकोर्ट का पुराना निर्णय per incuriam था क्योंकि उसमें Rangappa और Krishna Janardhan Bhat मामलों को नहीं देखा गया था।
अंतिम निर्णय
कोर्ट ने पुनरीक्षण याचिका स्वीकार करते हुए ट्रायल कोर्ट और अपीलीय कोर्ट के फैसले रद्द कर दिए। आरोपी पी.सी. हरि को धारा 138 एनआई एक्ट के आरोपों से बरी कर दिया गया। कार्यवाही के दौरान उसने जो भी राशि जमा की थी, उसे वापस करने का आदेश भी दिया गया।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह फैसला Prospective होगा यानी ऐसे मामले जिनमें यह मुद्दा पहले नहीं उठाया गया है, उन्हें यह निर्णय प्रभावित नहीं करेगा।