उत्तराखंड हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि आपसी सहमति से हुए तलाक समझौते में मां अपने नाबालिग बच्चे के भरण-पोषण के अधिकार को छोड़ने का समझौता नहीं कर सकती। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि नाबालिग बच्चे का अपने माता-पिता से भरण-पोषण पाने का अधिकार स्वतंत्र और अलग अधिकार है, जिसे माता-पिता किसी निजी समझौते के जरिए खत्म नहीं कर सकते।
जस्टिस पंकज पुरोहित ने एक पिता द्वारा दाखिल क्रिमिनल रिवीजन पिटिशन खारिज कर दी, जिसमें उसने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उसे अपनी नाबालिग बेटी को अंतरिम भरण-पोषण देने के लिए कहा गया था, जबकि मां ने शपथपत्र देकर किसी भी तरह का दावा छोड़ने की बात कही थी।
कोर्ट ने 24 जून 2025 को दिए अपने आदेश में कहा, “निचली अदालत के आदेश में कोई गैरकानूनी या विकृत पहलू नहीं है। यह पुनरीक्षण याचिका आधारहीन है और इसे प्रारंभिक स्तर पर ही खारिज किया जाता है।”

मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला देहरादून के फैमिली कोर्ट के प्रधान जज द्वारा 21 मार्च 2025 को पारित आदेश से जुड़ा है। फैमिली कोर्ट ने एक मां द्वारा अपनी नाबालिग बेटी के लिए पूर्व पति के खिलाफ दायर भरण-पोषण आवेदन को आंशिक रूप से स्वीकार किया था।
मां और पिता की शादी 14 अप्रैल 2011 को हुई थी और उनका तलाक 11 जनवरी 2024 को डिक्री द्वारा हो गया। इसके बाद मां ने अपनी नाबालिग बेटी के लिए 30,000 रुपये प्रतिमाह अंतरिम भरण-पोषण की मांग करते हुए आवेदन दायर किया। उनका कहना था कि पिता एक हेल्थ कंपनी में मैनेजर हैं और एलआईसी एजेंट के रूप में भी काम करते हैं, जिससे उन्हें लगभग 60,000 रुपये मासिक आय होती है।
पक्षकारों की दलीलें
पिता ने फैमिली कोर्ट में भरण-पोषण आवेदन का विरोध किया। उनका मुख्य तर्क था कि तलाक आपसी सहमति से हुआ था और समझौते के तहत सारा स्त्रीधन मां को लौटा दिया गया था। साथ ही, मां ने अदालत में शपथपत्र दिया था कि “वह स्वयं या अपनी बेटी के लिए कोई भी भरण-पोषण का मामला दायर नहीं करेंगी।” इस आधार पर पिता ने भरण-पोषण आवेदन खारिज करने की मांग की।
फैमिली कोर्ट का फैसला
फैमिली कोर्ट के प्रधान जज ने मामला सुनने के बाद पिता को आदेश दिया कि वह अपनी बेटी को 8,000 रुपये प्रतिमाह अंतरिम भरण-पोषण दे, जो 25 अक्टूबर 2024 (आवेदन की तारीख) से लागू होगा।
कोर्ट ने पाया कि पिता की मासिक आय 60,000 रुपये थी, इसके अलावा वह अन्य व्यवसायों से 35,000 से 50,000 रुपये कमा रहे थे। पिता ने अपनी लिखित दलील में अपनी आय से जुड़ी कोई जानकारी नहीं दी थी।
दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए फैमिली कोर्ट ने कहा कि तलाक के बाद भी नाबालिग बच्चा भरण-पोषण पाने का अधिकारी बना रहता है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि जो बच्चा मां के साथ रह रहा है, उसके भरण-पोषण की जिम्मेदारी पिता की ही है। कोर्ट की सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी थी कि “पति-पत्नी के बीच हुआ कोई भी समझौता नाबालिग बच्चे के अधिकारों पर लागू नहीं किया जा सकता।”
हाईकोर्ट का फैसला
फैमिली कोर्ट के आदेश से नाराज पिता ने उत्तराखंड हाईकोर्ट में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 438 के तहत क्रिमिनल रिवीजन पिटिशन दाखिल की।
जस्टिस पंकज पुरोहित ने मौखिक निर्णय सुनाते हुए फैमिली कोर्ट के तर्कों को बरकरार रखा। हाईकोर्ट ने माना कि बच्चे का भरण-पोषण करना पिता की जिम्मेदारी है और यह अधिकार माता-पिता के आपसी समझौते से खत्म नहीं किया जा सकता।
हाईकोर्ट ने टिप्पणी की, “कोर्ट ने उचित रूप से प्रतिवादी पत्नी की बेटी के भरण-पोषण के लिए 8,000 रुपये प्रतिमाह की अंतरिम राशि प्रदान की है।”
मामले का निपटारा करते हुए जस्टिस पुरोहित ने कहा, “मेरी राय में impugned judgment में कोई गैरकानूनी या विकृत पहलू नहीं है और उसमें हस्तक्षेप करने का कोई आधार नहीं बनता।” नतीजतन, रिवीजन पिटिशन खारिज कर दी गई।