सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि टर्मिनल बीमारी (असाध्य बीमारी) से पीड़ित और 70 वर्ष से अधिक उम्र के कैदियों की रिहाई के लिए सभी राज्यों को साझा जेल नियम बनाने चाहिए। अदालत ने यह टिप्पणी नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी (NALSA) की याचिका पर सुनवाई करते हुए की, जिसमें ऐसे कैदियों की रिहाई की मांग की गई है।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने इस याचिका पर अपना आदेश सुरक्षित रख लिया। इस दौरान अदालत ने कहा, “आखिरकार, जेल नियम प्रत्येक राज्य पर अलग-अलग लागू होते हैं। सभी राज्यों को साझा जेल नियम तैयार करने होंगे, जिनमें टर्मिनल बीमारी से पीड़ित कैदियों की रिहाई के प्रावधान स्पष्ट होने चाहिए।”
केंद्र सरकार की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने बताया कि इस मुद्दे पर केंद्र ने एक मानक संचालन प्रक्रिया (SoP) तैयार की है और सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को टर्मिनल बीमारी से पीड़ित कैदियों के प्रबंधन और संभवतः उनकी रिहाई के लिए सलाह दी गई है। उन्होंने यह भी कहा कि “जनरल एमनिस्टी” (सामान्य माफी) के तहत भी ऐसे कैदियों की रिहाई पर विचार किया जा सकता है।

हालांकि, पीठ ने चेताया कि इस प्रक्रिया में “दुरुपयोग की संभावना” बनी रहती है। अदालत ने कहा, “पहचान एक अलग बात है, लेकिन प्रमाणन वहीं फंसता है। इसके दुरुपयोग की बहुत बड़ी संभावना है।”
NALSA के वकील ने दलील दी कि टर्मिनल बीमारी की श्रेणी में किसे माना जाए, इसका स्पष्ट उल्लेख SoP में किया गया है और संबंधित जेल का चिकित्सा अधिकारी इसकी पुष्टि करेगा। इस पर अदालत ने आपत्ति जताते हुए कहा कि केवल मेडिकल ऑफिसर की पुष्टि पर्याप्त नहीं है, यह प्रक्रिया अधिक पारदर्शी और निष्पक्ष होनी चाहिए।
केंद्र सरकार ने जवाब दिया कि SoP में मेडिकल बोर्ड गठित करने का भी प्रावधान है। दिल्ली सरकार की ओर से पेश भाटी ने एक उदाहरण देते हुए बताया कि एक कैदी 1985 से अस्थमा से पीड़ित है। वहीं, NALSA ने जानकारी दी कि केरल में एक 94 वर्षीय कैदी अब भी जेल में है।
जस्टिस मेहता ने एक और उदाहरण देते हुए कहा कि जयपुर सेंट्रल जेल में एक डॉक्टर कैदी थे, जिन्हें बम ब्लास्ट केस में आजीवन कारावास की सजा मिली थी और वह 104 साल की उम्र में कुछ महीने पहले जेल में ही निधन हो गया।
उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से बताया गया कि उसने 2018 में बनाई गई नीति में टर्मिनल बीमारी से पीड़ित कैदियों के लिए मेडिकल बोर्ड गठित करने का प्रावधान शामिल किया है।
NALSA की याचिका में यह भी कहा गया कि कई बुजुर्ग व बीमार कैदी, जिनकी सजा उच्च न्यायालयों द्वारा बरकरार रखी गई है, अपनी सजा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक नहीं पहुंच पा रहे हैं और न ही जमानत की याचिका दाखिल कर पा रहे हैं। जेलों में भीड़भाड़ और चिकित्सा संसाधनों की कमी के चलते इन कैदियों को आवश्यक देखभाल मिलना कठिन है।
NALSA के अनुसार, 31 दिसंबर 2022 तक भारत की जेलों की औसत ओक्यूपेंसी दर 131% थी, जिससे न केवल बुनियादी ढांचे पर दबाव पड़ा है बल्कि कैदियों को सम्मानजनक जीवन और समुचित चिकित्सा सुविधा देना भी मुश्किल हो गया है।