पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि उच्च न्यायिक सेवा के अधिकारियों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने का निर्णय केवल हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र में आता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 50 में निहित न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांत को बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
मुख्य न्यायाधीश शील नागू और न्यायमूर्ति सुमीत गोयल की खंडपीठ ने यह टिप्पणी उस याचिका पर सुनवाई करते हुए की, जिसे लुधियाना के एक वकील ने दायर किया था। याचिका में फरवरी 2023 में यमुनानगर जिले के प्रशासकीय न्यायाधीश द्वारा एक न्यायिक अधिकारी के खिलाफ प्रारंभिक जांच बंद करने के आदेश को चुनौती दी गई थी। शिकायतकर्ता ने न्यायिक अधिकारी के खिलाफ आरोप लगाए थे, लेकिन अधिकारी के जवाब से संतुष्ट होकर प्रशासकीय न्यायाधीश ने जांच बंद कर दी थी।
याचिकाकर्ता ने इस निर्णय को चुनौती देते हुए राज्य सरकार को अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने के निर्देश देने और न्यायिक अधिकारी को नैतिक प्रमाणपत्र (इंटेग्रिटी सर्टिफिकेट) जारी करने पर रोक लगाने की मांग की थी।

कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि हालांकि उच्च न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है, लेकिन यह नियुक्ति संबंधित राज्य के क्षेत्राधिकार वाली हाईकोर्ट से परामर्श लेकर ही होती है। यह व्यवस्था न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि किसी न्यायिक अधिकारी के आचरण या कार्यप्रणाली के खिलाफ प्राप्त लिखित शिकायत को पहले से निर्धारित प्रक्रियाओं के तहत निपटाया जाता है। अधिकारी से जवाब प्राप्त करने के बाद प्रशासकीय न्यायाधीश प्रारंभिक जांच करते हैं और यह तय करते हैं कि क्या अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू करने के लिए पर्याप्त आधार मौजूद हैं।
खंडपीठ ने कहा, “इस मामले में प्रारंभिक जांच की गई और प्रशासकीय न्यायाधीश ने पाया कि आगे की कार्रवाई के लिए कोई पर्याप्त सामग्री नहीं है, इसलिए जांच बंद कर दी गई।” कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि जब शिकायत को प्रशासनिक नियमों के अनुसार निपटाया गया हो, तो केवल दुर्भावना या मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में ही न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।
इस निर्णय के साथ, हाईकोर्ट ने न्यायिक अधिकारियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई के मामलों में अपनी विशेष प्रशासनिक शक्ति को दोहराया और बाहरी हस्तक्षेप से उसकी रक्षा की।