राम जन्मभूमि निर्णय से जुड़े प्रश्न पर याचिका खारिज: राजस्थान हाईकोर्ट ने कहा – अकादमिक आलोचना धार्मिक अपराध नहीं

राजस्थान हाईकोर्ट ने राम जन्मभूमि निर्णय से संबंधित विश्वविद्यालयी परीक्षा में पूछे गए प्रश्न को लेकर दाखिल एक याचिका को खारिज कर दिया है। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि किसी कानूनी निर्णय पर की गई अकादमिक या व्यक्तिगत राय तब तक धार्मिक अपराध नहीं मानी जा सकती जब तक उसमें जानबूझकर दुर्भावना से धार्मिक भावनाएं भड़काने का उद्देश्य न हो।

न्यायमूर्ति अनुप कुमार ढंड की एकल पीठ ने गुरुवार को यह फैसला सुनाते हुए कहा, “किसी संवेदनशील विषय पर भी विद्यार्थी, शिक्षक या विद्वान द्वारा व्यक्त की गई राय को धार्मिक हमले के रूप में नहीं देखा जा सकता। न्यायिक निर्णयों की आलोचना और विश्लेषण कानूनी शिक्षा का एक अनिवार्य हिस्सा है।”

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यह मामला अनुज कुमार कुमावत नामक विधि छात्र द्वारा दायर याचिका से जुड़ा था, जिसमें उन्होंने डॉ. भीमराव अंबेडकर विधि विश्वविद्यालय द्वारा 12 अगस्त 2024 को आयोजित ‘लीगल लैंग्वेजेज, लीगल राइटिंग एंड जनरल इंग्लिश’ परीक्षा में पूछे गए एक प्रश्न पर आपत्ति जताई थी। उनका आरोप था कि उक्त प्रश्न धार्मिक भावनाओं को आहत करता है और भारतीय दंड संहिता की धारा 295A तथा संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन करता है।

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याचिकाकर्ता ने इस प्रश्न को हटाने, जिम्मेदारों के खिलाफ कार्रवाई करने और सार्वजनिक माफी की मांग की थी। हालांकि, अदालत ने इसे खारिज करते हुए कहा, “किसी प्रश्नपत्र के अंश को केवल इस आधार पर चुनौती देना कि वह धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाता है, तब तक कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं माना जा सकता जब तक यह साबित न हो कि उसे दुर्भावनापूर्वक और धार्मिक भावनाएं भड़काने के इरादे से शामिल किया गया हो।”

अदालत ने यह भी कहा कि किसी छात्र की एकतरफा भावना के आधार पर शैक्षणिक स्वतंत्रता और संस्थानों की स्वायत्तता को सीमित नहीं किया जा सकता, विशेष रूप से तब जब किसी अन्य छात्र ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई हो। “कानून को भावनाओं से नहीं, तर्क से चलना चाहिए,” न्यायमूर्ति ढंड ने कहा।

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अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की व्याख्या करते हुए कहा कि यह अधिकार पूर्ण नहीं है और अनुच्छेद 19(2) के तहत उस पर उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। हालांकि, यह दोहराया गया कि “न्यायिक निर्णयों की निष्पक्ष आलोचना सीमित सीमा तक स्वीकार्य है, बशर्ते वह दुर्भावना से प्रेरित न हो और उसमें अपमानजनक, मानहानिकर या अवमाननापूर्ण भाषा का प्रयोग न किया गया हो।”

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अंततः, अदालत ने याचिका को “ग़लफ़हमी पर आधारित” और “निराधार” मानते हुए उसे खारिज कर दिया तथा लंबित सभी आवेदन भी समाप्त कर दिए।

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