बॉम्बे हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि एक ऐसा फ्लैट जो अब तक अधूरा है और न तो याचिकाकर्ता और न ही प्रतिवादी के कब्जे में है, उसे “साझा आवास” (Shared Household) नहीं माना जा सकता जैसा कि महिला घरेलू हिंसा संरक्षण अधिनियम, 2005 [Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005] की धारा 2(स) में परिभाषित किया गया है। न्यायालय ने ऐसी महिला की याचिका खारिज कर दी जिसने अपने पति को उक्त फ्लैट की बाकी किश्तों का भुगतान करने का निर्देश देने की मांग की थी।
न्यायमूर्ति मंजुषा देशपांडे की एकल पीठ ने यह फैसला सुनाते हुए कहा कि यदि कोई मकान अभी निर्माणाधीन है और दंपत्ति उसमें कभी नहीं रहे हैं, तो उसे साझा आवास नहीं माना जा सकता और न ही उस पर DV अधिनियम की धारा 19 के तहत कोई आदेश पारित किया जा सकता है।
मामले की पृष्ठभूमि
विवाह के पश्चात याचिकाकर्ता अपने पति के साथ मुंबई के किराए के मकान में रहने लगी थी। कुछ समय बाद पति अमेरिका चला गया, और महिला ने शारीरिक और मानसिक हिंसा का आरोप लगाते हुए 2022 में घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत शिकायत दर्ज कराई। फरवरी 2023 में मजिस्ट्रेट कोर्ट ने पति को ₹45,000 प्रति माह अंतरिम भरण-पोषण देने का आदेश दिया था।

इसके पूर्व, दंपत्ति ने मालाड पश्चिम, मुंबई में एक फ्लैट बुक कराया था, जिसकी कुल कीमत ₹3.52 करोड़ थी। ₹3.24 करोड़ का ऋण बैंक से लिया गया था। याचिका में महिला ने कोर्ट से प्रार्थना की थी कि पति को निर्देशित किया जाए कि वह फ्लैट की 7वीं और 8वीं किस्तें भरें ताकि फ्लैट को जब्त या रद्द न किया जाए।
निचली अदालतों का आदेश
अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट (ACMM), 24वीं कोर्ट, बोरीवली ने याचिका आंशिक रूप से स्वीकार की थी। कोर्ट ने पति को फ्लैट में किसी तीसरे पक्ष के अधिकार नहीं देने का निर्देश दिया था, लेकिन किश्तों के भुगतान संबंधी प्रार्थनाएं खारिज कर दी थीं। महिला द्वारा दायर की गई अपील को सत्र न्यायालय, दिंडोशी ने 19 अक्टूबर 2024 को खारिज कर दिया था। इसके बाद महिला ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
याचिकाकर्ता की दलीलें
याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि यद्यपि फ्लैट अभी अधूरा है, फिर भी वह पति-पत्नी के बीच साझा आवास माना जाना चाहिए क्योंकि यह दोनों के नाम पर खरीदा गया है और दंपत्ति द्वारा भविष्य में वहां निवास करने का उद्देश्य था। उन्होंने प्रभा त्यागी बनाम कमलेश देवी [(2022) 8 SCC 90] में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि साझा आवास में रहने का अधिकार केवल वास्तविक निवास तक सीमित नहीं है, बल्कि “संरचनात्मक निवास” (constructive residence) भी माना जा सकता है।
प्रतिवादी की दलीलें
प्रतिवादी के वकील ने इसका विरोध करते हुए कहा कि DV अधिनियम की धारा 2(स) में स्पष्ट रूप से यह शर्त है कि संबंधित महिला को उस आवास में किसी समय पर वास्तव में रहना चाहिए था। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि फ्लैट न केवल निर्माणाधीन है, बल्कि किसी भी पक्ष के कब्जे में भी नहीं है, इसलिए इसे साझा आवास नहीं माना जा सकता। उन्होंने मनमोहन अटावर बनाम नीलम अटावर और सतीश चंदर आहूजा बनाम स्नेहा आहूजा जैसे निर्णयों का हवाला दिया।
न्यायालय का निर्णय और विश्लेषण
न्यायालय ने कहा कि DV अधिनियम की धारा 19 के अंतर्गत कोई भी आदेश केवल उसी स्थिति में दिया जा सकता है जब “साझा आवास” का अस्तित्व हो और वह आवास वास्तव में या संरचनात्मक रूप से महिला के निवास के रूप में स्थापित हो।
न्यायमूर्ति मंजुषा देशपांडे ने कहा:
“इस मामले में जिस फ्लैट को साझा आवास बताया गया है, वह अब तक कब्जे में नहीं आया है, उसकी किश्तें बाकी हैं और कोई पक्ष उसमें कभी रहा नहीं है। ऐसी स्थिति में, पति को किश्तें भरने के लिए विवश करना या नियोक्ता को वेतन से कटौती कर भुगतान कराने का निर्देश देना, DV अधिनियम की परिधि से बाहर की मांग है।”
न्यायालय ने यह भी जोड़ा कि DV अधिनियम एक सामाजिक कल्याण कानून है, जो घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को उनके मौजूदा निवास से बेदखल होने से बचाने हेतु बना है। लेकिन यदि कोई महिला ऐसे मकान में कभी रही ही नहीं, और वह निर्माणाधीन भी है, तो DV अधिनियम के तहत उस मकान के लिए राहत नहीं दी जा सकती।
निष्कर्ष
अंततः हाईकोर्ट ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि यह मांग DV अधिनियम की धारा 19(d) और (e) के तहत स्वीकार नहीं की जा सकती। कोर्ट ने यह भी कहा कि न तो मजिस्ट्रेट और न ही सत्र न्यायालय के आदेशों में कोई त्रुटि है, जो कि हस्तक्षेप का कारण बने।