छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक सरकारी कर्मचारी लवन सिंह चुरेन्द्र को भ्रष्टाचार के मामले में दोषमुक्त कर दिया, जिन्हें विशेष न्यायाधीश (भ्रष्टाचार निवारण), रायपुर द्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धाराओं 7 और 13(1)(डी) सहपठित धारा 13(2) के तहत दोषी ठहराया गया था। हाईकोर्ट ने कहा कि जब तक अवैध धन की मांग और आरोपी द्वारा उसे स्वेच्छा से स्वीकार करने का संदेह से परे प्रमाण नहीं दिया जाता, तब तक केवल रिश्वत की नकदी बरामद होने से दोष सिद्ध नहीं होता।
यह निर्णय 1 जुलाई 2025 को मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा की एकल पीठ द्वारा आपराधिक अपील संख्या 52/2018 में सुनाया गया। न्यायालय ने विशेष न्यायालय द्वारा 20 दिसंबर 2017 को सुनाई गई दोषसिद्धि और सजा को रद्द कर दिया।
मामला संक्षेप में
यह मामला बैजनाथ नेताम द्वारा दर्ज शिकायत पर आधारित था, जो उस समय शिक्षक कर्मी ग्रेड-II और प्री-मैट्रिक आदिवासी बालक छात्रावास, मदनपुर के अधीक्षक के रूप में कार्यरत थे। उन्होंने आरोप लगाया कि आरोपी लवन सिंह चुरेन्द्र, जो उस समय मंडल संयोजक के पद पर कार्यरत थे, ने जनवरी 2013 की छात्रवृत्ति राशि ₹28,600 की स्वीकृति के एवज में ₹10,000 की रिश्वत मांगी थी। शिकायतकर्ता के अनुसार, उन्होंने पहले ₹2,000 दिए और बाद में ₹8,000 देने का वादा किया, जिसके बाद उन्होंने एंटी करप्शन ब्यूरो (ACB) को सूचना दी और एक जाल बिछाया गया, जिसमें आरोपी को रंगे हाथों पकड़ने का दावा किया गया।

निचली अदालत का निर्णय
विशेष न्यायालय, रायपुर ने अभियोजन पक्ष की गवाही पर भरोसा करते हुए आरोपी को दोषी ठहराया और प्रत्येक धारा के तहत दो वर्ष के कठोर कारावास और ₹20,000 के जुर्माने की सजा सुनाई। दोनों सजाओं को एक साथ चलने का निर्देश दिया गया।
हाईकोर्ट का विश्लेषण
हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में पाया कि:
- शिकायतकर्ता की सेवा पहले ही समाप्त हो चुकी थी जब उसने शिकायत दर्ज की थी।
- आरोपी लवन सिंह चुरेन्द्र छात्रवृत्ति की राशि स्वीकृत करने के लिए सक्षम प्राधिकारी नहीं थे; यह कार्य केवल खंड शिक्षा अधिकारी द्वारा किया जा सकता था।
- शिकायतकर्ता द्वारा जिस छात्रवृत्ति के लिए रिश्वत मांगे जाने का आरोप लगाया गया, वह राशि 11 जनवरी 2013 को पहले ही निकाली जा चुकी थी, यानी शिकायत दर्ज करने से पहले।
इसके अतिरिक्त, शिकायतकर्ता पर स्वयं आरोपी द्वारा जांच की गई थी, जिसमें ₹50,700 की अनियमित छात्रवृत्ति वितरण की पुष्टि हुई थी। कोर्ट ने यह भी माना कि शिकायतकर्ता का व्यवहार पूर्वाग्रहपूर्ण और शंकास्पद था।
रिकॉर्ड की गई बातचीत को प्रमाण के रूप में पेश किया गया था, लेकिन उसे भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B के तहत आवश्यक प्रमाणपत्र के बिना प्रस्तुत किया गया, जिससे वह प्रमाण के रूप में स्वीकार्य नहीं था।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों — बी. जयाराज बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, नीरज दत्ता बनाम एनसीटी दिल्ली राज्य, और लोकायुक्त पुलिस बनाम सी.बी. नागराज — का हवाला देते हुए कहा:
“भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अंतर्गत अपराध सिद्ध करने के लिए घूस की मांग और उसे स्वेच्छा से स्वीकार करना संदेह से परे सिद्ध होना अनिवार्य है। केवल नकदी की बरामदगी पर्याप्त नहीं है।”
इन तथ्यों और सिद्धांतों के आधार पर हाईकोर्ट ने आरोपी की दोषसिद्धि और सजा को रद्द करते हुए उसे सभी आरोपों से बरी कर दिया। हालांकि, अदालत ने आदेश दिया कि भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 437A (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 481) के तहत आरोपी की जमानत छह महीने तक प्रभावी बनी रहे।