इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि अब मृत्युदंड या आजीवन कारावास से दंडनीय अपराधों में अग्रिम जमानत देने पर कोई कानूनी रोक नहीं है, क्योंकि नई दंड प्रक्रिया संहिता ‘भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 (BNSS)’ में ऐसी कोई बाध्यता नहीं रखी गई है।
जस्टिस चंद्रधारी सिंह ने यह निर्णय उस समय दिया जब उन्होंने 2011 के एक हत्या मामले में आरोपी अब्दुल हमीद की दूसरी अग्रिम जमानत याचिका मंजूर की। हमीद को विवेचना के दौरान चार्जशीट नहीं किया गया था, लेकिन बाद में अदालत ने उन्हें समन जारी कर सुनवाई में उपस्थित होने को कहा।
हमीद की पहली अग्रिम जमानत याचिका फरवरी 2023 में इस आधार पर खारिज कर दी गई थी कि उत्तर प्रदेश संशोधन अधिनियम 2019 के तहत CrPC की धारा 438(6) में गंभीर अपराधों में अग्रिम जमानत पर रोक थी।

हालांकि, हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि अब 1 जुलाई 2024 से लागू हुई BNSS की धारा 482 में ऐसी कोई रोक नहीं है, और यह निष्कासन संसद की “सचेत एवं उद्देश्यपूर्ण विधायी मंशा” को दर्शाता है। इसका अर्थ है कि अब संसद इस रोक को जारी नहीं रखना चाहती।
उत्तर प्रदेश सरकार ने तर्क दिया था कि चूंकि अपराध 2011 में हुआ और चार्जशीट भी BNSS के लागू होने से पहले दायर हुई, इसलिए नए कानून का प्रभाव पूर्वव्यापी (retrospective) रूप से नहीं माना जा सकता। लेकिन कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि चूंकि वर्तमान याचिका 1 जुलाई 2024 के बाद दायर हुई है, इसलिए इसे BNSS के तहत ही विचार किया जाएगा, चाहे अपराध पुराना क्यों न हो।
कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि चूंकि पहली जमानत याचिका केवल प्रक्रियात्मक आधार (maintainability) पर खारिज की गई थी, न कि मेरिट पर, इसलिए बदलते कानूनी परिदृश्य में दूसरी याचिका पूरी तरह वैध है।
कोर्ट ने अपने आदेश में 2024 में दिए गए फैसले दीपू व अन्य बनाम राज्य व अन्य का हवाला देते हुए दोहराया कि BNSS के प्रभाव में आने के बाद दायर की गई याचिकाओं पर अब नई, अधिक उदार कानूनी व्यवस्था लागू होगी।
यह फैसला उत्तर प्रदेश में गंभीर अपराधों में अग्रिम जमानत पाने की राह में अब तक रही सबसे बड़ी विधिक बाधा को समाप्त करता है और BNSS के अंतर्गत आरोपी को अधिक अधिकार प्रदान करता है।