केरल हाईकोर्ट ने शुक्रवार को प्रसिद्ध मलयालम फिल्म निर्माता रंजीत बालकृष्णन के खिलाफ दर्ज एक यौन शोषण के मामले को खारिज कर दिया, जिससे 2012 की एक घटना के आधार पर शुरू हुई कानूनी कार्यवाही का अंत हो गया। हालांकि अदालत के फैसले की आधिकारिक प्रति अभी प्रतीक्षित है, लेकिन यह राहत प्रमुख तथ्यों में विसंगतियाँ सामने आने के बाद दी गई।
रंजीत, जो मलयालम सिनेमा में प्रशंसित फिल्मों के निर्देशक और निर्माता रहे हैं, को एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने अदालत में प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने तर्क दिया कि शिकायत तथ्यों और समय-सीमा के मामले में गलतियों से भरी हुई है। मामले का एक अहम बिंदु यह था कि जिस होटल में कथित घटना हुई थी — केम्पेगौड़ा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास स्थित ताज होटल — उसका उद्घाटन कथित घटना की तारीख से चार साल बाद हुआ था। इसी तथ्य के आधार पर पहले भी आपराधिक कार्यवाही पर अस्थायी रोक लगाई गई थी।
अदालत ने यह भी उल्लेख किया कि एफआईआर दर्ज करने में 12 वर्षों की अस्पष्ट देरी रही और शिकायतकर्ता ने इस देरी का कोई संतोषजनक कारण नहीं बताया। साक्ष्यों की कमी और देरी के मद्देनज़र हाईकोर्ट ने रंजीत की याचिका स्वीकार करते हुए एफआईआर को रद्द कर दिया।

आरोपों की पृष्ठभूमि
यह मामला अगस्त 2023 में एक पुरुष नवोदित अभिनेता द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत से जुड़ा है, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया कि दिसंबर 2012 में रंजीत ने उनके साथ यौन शोषण किया था। एफआईआर के अनुसार, शिकायतकर्ता की रंजीत से मुलाकात कोझीकोड में ‘बवुत्तियुडे नामथिल’ फिल्म की शूटिंग के दौरान हुई थी, जिसे रंजीत ने लिखा और निर्मित किया था। शिकायतकर्ता ने कहा कि उन्होंने अभिनेता ममूटी से मिलने की इच्छा जाहिर की थी, जिसके बाद रंजीत ने उन्हें बेंगलुरु के एक होटल में बुलाया, शराब पिलाई और यौन शोषण किया।
एफआईआर भारतीय दंड संहिता की धारा 377 (प्रकृति के विरुद्ध अपराध) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66E (निजता का उल्लंघन) के तहत दर्ज की गई थी। रंजीत ने इसके खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसे 4 जुलाई को स्वीकार कर लिया गया।
यह मामला रंजीत के खिलाफ यौन शोषण का दूसरा आरोप था। इससे पहले एक बंगाली अभिनेत्री ने भी उन पर आरोप लगाए थे, लेकिन उस मामले में कोई औपचारिक चार्ज नहीं तय हुए थे।
कानूनी महत्व
हाईकोर्ट का यह निर्णय इस बात को रेखांकित करता है कि गंभीर आपराधिक आरोपों में समय पर शिकायत दर्ज करना और साक्ष्य की पुष्टि आवश्यक होती है। यह निर्णय यह भी दिखाता है कि अदालत लंबे समय बाद दर्ज मामलों में अतिरिक्त सावधानी बरतती है, खासकर जब वे तथ्यात्मक रूप से कमजोर हों।