सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक अनुबंध पर नियुक्त सहायक लोक अभियोजक द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका (SLP) को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने अपनी सेवा नियमित करने की मांग की थी। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता ऐसा कोई वैधानिक या संवैधानिक अधिकार स्थापित नहीं कर सके हैं, जिससे उन्हें यह राहत दी जा सके।
न्यायमूर्ति संदीप मेहता और न्यायमूर्ति जॉयमाल्य बागची की पीठ ने कोलकाता हाईकोर्ट के उस निर्णय को सही ठहराया, जिसमें हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता की नियमितिकरण की मांग वाली रिट याचिका को खारिज कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, “याचिकाकर्ता ऐसा कोई वैधानिक या संवैधानिक अधिकार स्थापित नहीं कर सके हैं, जिससे उन्हें नियमितीकरण की राहत मिल सके। सहायक लोक अभियोजकों की नियुक्ति एक संरचित प्रक्रिया है, जो दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 और संबंधित राज्य नियमों के अधीन होती है। अतः अनुबंध के आधार पर कार्य कर रहे व्यक्ति के नियमितीकरण का दावा कानून के विपरीत होगा।”

कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि याचिकाकर्ता ने स्वयं जिला मजिस्ट्रेट, पुरुलिया को कई बार पत्र लिखकर यह अनुरोध किया था कि उन्हें जीविका के लिए अनुबंध पर ही कार्य करने की अनुमति दी जाए।
याचिकाकर्ता को 20 जून 2014 को जिला मजिस्ट्रेट, पुरुलिया द्वारा अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में राज्य के मामलों में अभियोजन कार्य हेतु सहायक लोक अभियोजक के रूप में अनुबंध पर नियुक्त किया गया था। उन्हें प्रति उपस्थिति ₹459 का शुल्क निर्धारित किया गया था, अधिकतम दो मामलों के लिए प्रतिदिन। बाद में उन्हें रघुनाथपुर के न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में भी मामले देखने का दायित्व सौंपा गया।
इसके पश्चात याचिकाकर्ता ने अपने मानदेय में वृद्धि और सेवा नियमितीकरण की मांग करते हुए राज्य प्रशासनिक अधिकरण (State Administrative Tribunal) में आवेदन दायर किया। 16 दिसंबर 2022 को अधिकरण ने उनके पक्ष में निर्णय दिया, परंतु 12 जून 2023 को पश्चिम बंगाल सरकार के न्याय विभाग के प्रधान सचिव ने याचिका को खारिज कर दिया।
इसके बाद याचिकाकर्ता ने दोबारा अधिकरण का रुख करते हुए सेवा नियमितीकरण, निष्कासन से संरक्षण, सेवानिवृत्ति तक सेवा की गारंटी और समान वेतन जैसी मांगें रखीं। हालांकि, पुनर्विचार करते हुए अधिकरण ने पाया कि याचिकाकर्ता केवल अनुबंध पर कार्यरत थे और उनकी नियुक्ति किसी नियमित प्रक्रिया के तहत नहीं हुई थी। इसके अतिरिक्त, उन्होंने स्वयं आर्थिक स्थिति के आधार पर अनुबंध पर बने रहने की इच्छा जताई थी।
हाईकोर्ट के समक्ष याचिकाकर्ता ने यह भी दलील दी कि पिछले 11 वर्षों में उनकी फीस में कोई वृद्धि नहीं हुई और वह कम-से-कम पैनल वकीलों के समान मानदेय पाने के हकदार हैं। इस पर राज्य सरकार ने कहा कि ऐसी कोई विधिक व्यवस्था नहीं है जिससे याचिकाकर्ता ऐसी मांग कर सकें। हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की दलीलों से सहमति जताई और अधिकरण के निर्णय को सही ठहराया।
हालांकि, हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता की मानदेय से संबंधित पीड़ा पर सहानुभूति व्यक्त करते हुए उन्हें संबंधित प्राधिकरण के समक्ष अपनी मांग रखने की स्वतंत्रता दी और निर्देश दिया कि उस पर विचार किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस दृष्टिकोण को बरकरार रखा और याचिका को मेरिट के अभाव में खारिज कर दिया।
गौरतलब है कि लोक अभियोजकों और सहायक लोक अभियोजकों की नियुक्ति पहले दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 24 के तहत और अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 18 के तहत होती है। दोनों प्रावधानों के तहत, राज्य सरकार को जिला मजिस्ट्रेट और सत्र न्यायाधीश से परामर्श लेकर ऐसे अधिवक्ताओं में से नियुक्ति करनी होती है, जिनके पास कम से कम सात वर्षों का अनुभव हो। यदि अभियोजन अधिकारियों का नियमित कैडर मौजूद हो, तो नियुक्ति उसी कैडर से की जानी चाहिए, जब तक कि उसमें उपयुक्त व्यक्ति उपलब्ध न हो।
सुप्रीम कोर्ट ने इसी विधिक व्यवस्था का पालन करते हुए याचिकाकर्ता की याचिका को खारिज कर दिया।