छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि ट्रायल कोर्ट धारा 307 सीआरपीसी (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 344) के तहत सहअभियुक्त को सच्ची गवाही देने की शर्त पर माफ़ी (pardon) देने का अधिकार रखता है, भले ही वह व्यक्ति हिरासत में न हो। न्यायालय ने एनआईए विशेष न्यायालय, जगदलपुर के 7 फरवरी 2025 के उस आदेश को रद्द कर दिया जिसमें एक आत्मसमर्पण किए नक्सली को माफ़ी देने की एनआईए की अर्जी खारिज कर दी गई थी।
मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति विभु दत्ता गुरु की खंडपीठ ने यह निर्णय केंद्र सरकार की ओर से एनआईए द्वारा दायर आपराधिक अपील संख्या 551/2025 पर सुनवाई करते हुए दिया।
मामले की पृष्ठभूमि:
कोतवाली थाना, जिला बीजापुर में अपराध क्रमांक 68/2023 के तहत 16 जून 2023 को एफआईआर दर्ज की गई थी। आरोपी दिनेश ताती को 10 लाख रुपये की नकदी (₹2000 के नोटों में), 80 नक्सली पर्चे, एक पासबुक और कुछ दवाइयों के साथ गिरफ्तार किया गया था। पूछताछ में उसने बताया कि यह राशि उसे आत्मसमर्पण किए नक्सलियों—शांति हेमला और पांड्रु पोट्टम—ने दी थी, जो प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवादी) से संबंधित हैं।

आरोपी को यह धन ट्रैक्टर खरीदने और नक्सली पर्चे वितरित करने के लिए दिया गया था। जांच के दौरान यूएपीए अधिनियम, 1967 की धाराएं 10, 13(1)(2), 39, और 40 भी जोड़ी गईं। इसके बाद, केंद्र सरकार ने इस मामले को राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से गंभीर मानते हुए 27 मार्च 2024 को एनआईए को सौंप दिया।
एनआईए ने इस मामले को आरसी संख्या 17/2024/एनआईए/आरपीआर के रूप में पुनः दर्ज कर लिया और जांच के दौरान एक आत्मसमर्पित नक्सली (कोड नाम ‘A’) को माफ़ी देने की अनुमति विशेष न्यायालय से मांगी ताकि वह गवाह के रूप में अन्य आरोपियों के खिलाफ सच्ची गवाही दे सके।
एनआईए कोर्ट द्वारा याचिका खारिज करने का आधार:
एनआईए कोर्ट ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी थी कि धारा 306(4)(b) सीआरपीसी (अब बीएनएसएस की धारा 343(4)(b)) के तहत जब तक अभियुक्त पहले से ज़मानत पर न हो, उसे ट्रायल समाप्त होने तक हिरासत में रखा जाना चाहिए। चूंकि इस मामले में उक्त व्यक्ति को कभी गिरफ़्तार ही नहीं किया गया था, कोर्ट ने माफ़ी देने से इनकार कर दिया।
हाईकोर्ट की विवेचना और निर्णय:
हाईकोर्ट ने माना कि ट्रायल कोर्ट का यह दृष्टिकोण गलत है और उसने कानून के उद्देश्य को समझे बिना याचिका खारिज की। कोर्ट ने सुरेश चंद्र बहरी बनाम बिहार राज्य, 1995 (Supp. 1) SCC 80 के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला देते हुए कहा:
“धारा 306 का उद्देश्य यह है कि जहां गंभीर अपराध कई व्यक्तियों द्वारा किए गए हों, वहां किसी एक सहअभियुक्त को माफ़ी देकर उसकी गवाही से अन्य आरोपियों को सजा दिलाई जा सके। यह प्रावधान इसलिए बनाया गया है ताकि साक्ष्य के अभाव में गंभीर अपराध करने वाले बच न जाएं।”
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि भले ही व्यक्ति हिरासत में न हो, ट्रायल कोर्ट के पास धारा 307 सीआरपीसी (अब धारा 344 बीएनएसएस) के अंतर्गत माफ़ी देने का स्पष्ट अधिकार है। एनआईए कोर्ट ने बिना दस्तावेजों की समुचित समीक्षा किए, और उपलब्ध प्रावधानों पर विचार किए बिना याचिका खारिज की, जो “per se illegal” है।
हाईकोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि इसी तरह के एक पूर्व मामले State (Through NIA) v. Hidma and Others [CRA No. 754/2020] में भी इसी न्यायालय ने एनआईए की माफ़ी याचिका पुनर्विचार के लिए विशेष न्यायालय को भेजी थी।
अंतिम आदेश:
कोर्ट ने एनआईए विशेष न्यायालय, जगदलपुर का आदेश रद्द करते हुए मामला दोबारा विचारार्थ भेजा और निर्देश दिया कि याचिका पर धारा 344 बीएनएसएस (पूर्व धारा 307 सीआरपीसी) तथा Hidma मामले के निर्णय के आलोक में विचार किया जाए।